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________________ (२५४ ) कल्याणकारके , [ रोगी को ] इस प्रकार चित सुलायें कि गुदा सूर्य के अभिमुख हो, कमर से ऊपर के शरीरभाग ( पूर्वोक्त मनुष्य के ) गोद में हो, कटिप्रदेश जहां ऊंचा हो । पश्चात् गुदे संधि को कपड़े की पट्टसि बांधकर उसे परिचारक मित्र, अच्छति से पकड़ रख्खे ( जिस से वह हिले नहीं ) तदनंतर गुदप्रदेश को घी लेपन कर, घृत से लिप्त अयंत्र को गुदा में प्रवेश करावें । जब मस्से यंत्र के पास्थित, छिद्र ( सूराक ) से अंदर आजायें तो उनको कपडा व फायासे साफ कर के और अच्छी तरह से देखकर, बलित [ शस्त्रविशेष ] से पकड कर कर्तरी शस्त्रसे काटकर अर्श की स्थिति के लिये कारणभूत दूषित रक्त को बाहर निकालना चाहिये अथवा जला देना चाहिये अथवा कूर्चक से पकड कर, पकाकर सिद्ध किये हुए क्षार को लेप करके, अर्श यंत्र के मुंह को, हथैली से ढके ( और सौतक गिनने के समयतक रहने दें ) जब मर से पका हुआ जामून सदृश नीले थोडा ऊंधा हो जाये तो, पश्चात् ठंण्डे एवं दूध, जल, दही का तोड, कांजी इनसे बार' २ धोकर, एवं मुलैठी, चंदन इन के कल्कको घी के साथ लेपन कर, क्षार का जलन को शमन करना चाहिये । इस के बाद अर्श यंत्र को निकालकर ठंडे पानी से स्नान करावे और हवा रहित मकान में बैठाले । पश्चात् साठी चाल, जौ आदि के योग्य अन्नको घी, दूध मिलाकर योग्य शाकोंके साथ खिलाना चाहिये । सात २ दिनमें एक अंकुरको गिराना चाहिये । इस प्रकार गिराते हुए यदि कुछ भाग शेष रहजाय तो फिर पूत्रोक्त क्रमसे जलाना चाहिये ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ १०८ ।। १०९ ।। ११० ।। १११ ॥ इस में अर्श का शस्त्र, क्षार, अग्निकर्म, बतलाये हैं | आगे अनेक अर्शनाशक योग भी बतलायेंगे । लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इन को किन २ हालतो में प्रयोग करना चाहिये ? इस का खुलासा इस प्रकार है । जिसको उत्पन्न होकर थोडे दिन होगये हों, अल्प दोष, उपद्रवोंसे संयुक्त हो, तथा जो अभ्यंतर भाग में होने से बाहर बवासीर को औषध खिलाकर ठीक करना चाहिये । अर्थात् वे होसकते हैं । जिस के मस्से, कोमल, फैले हुए, मोटे और उभरे हुए हों तो उसको क्षार लगाकर जीतमा चाहिये । जो मस्से, खरदरे, स्थिर, ऊंचे व कडे हों उनको अग्निकर्म से ठीक करना चाहिये । जिनकी जड पतली हो, जो ऊंचे व लटकते हो, क्लेदयुक्त हो, उन को शस्त्रसे काट कर अच्छा करना चाहिये । १ दोनों पैर और गले को परस्पर बांधना चाहिये | ऐसा अन्य ग्रंथों में लिखा है । Jain Education International अल्प लक्षण, अल्प नहीं दीखता हो ऐसे औषध सेवनसे अच्छे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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