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________________ .. (२५२) कल्याणकारके भावार्थ:---उस अर्श रोगकी चिकित्सा यंत्र, पट्टीबंधन, उत्तम औषधि व शस्त्रकर्मके बलसे एवं महान् गुणसे युक्त क्षारकर्म विधिसे किस प्रकार करनी चाहिये यह विषय बहुत प्रयत्नसे यहांसे आगे कहा जायगा अर्थात् अर्श रोगकी चिकित्सा यहांसे आगे कहेंगे ॥ ९६ ॥ मुष्ककादिक्षार। कृष्णमुष्ककतरु परिगृह्यो-- । त्पाटय शुष्कमवदह्य सुभस्म ॥ द्रोणमिश्रितजलाढकषद्कं । काथयन्महति निर्मलपात्रे ॥९७ ॥ यावदच्छमतिरक्तसुतीक्ष्णं । तावदुत्कथितमाशुविगाल्यो- ॥ द्धट्टयन परिपचेदथ दव्यों । यद्यथा द्रवधनं न भवेत्तत् ॥ ९८॥ शंखनाभिमवदा सुतीक्ष्णं । शर्करामपि निषिच्य यथावत ॥ . क्षारतोयपरिपेषितपूति--- । काग्निकं प्रतिनिवापितमेतत ॥९९ ॥ साधुपात्रनिहितं परिगृह्या-। भ्यंतरांकुरमहोदरकीले ॥ ' ग्रंथिगुल्मयकृति प्रपिवेत्त । द्वाह्यजं प्रति विलेपनमिष्ठम् ॥१०॥ भावार्थ:-काला मोखा वृक्षको फाडकर सुखावें, फिर उसे जलाकर भस्म करें । इसका एक द्रोण [ १२॥ पौने तेरह सेर ] भस्मको, एक बडा निर्मल पात्र में डालकर, उसमें छह आढक (१९ सर १० तोला ) जल मिला। पश्चात् इसे तबतक पकावें जबतक वह स्वच्छ, लाल व तीक्ष्ण न हों । फिर इमे छानकर इस पानीको कर छलीसे चलाते हुए पुनः पकाना चाहिये जबतक वह द्रव गाढा न हों । इस [क्षारजल ] में तक्षिण शंखनाभि, और चूनाको जलाकर योग्य प्रमाण में मिलावें तथा पूतिकरंज व भिलावे को क्षार जलमें पीस कर डालें । इस प्रकार सिद्ध किये हुए क्षारको एक अच्छे पात्रमें सुरक्षित रूपसे रखें । इस को अंदर के भाग में होनेवाले अर्श, महोदर, ग्रंथि, गुल्म, यकृत्वृद्धि इत्यादि रोगों में योग्य मात्रा में पीना चाहिये तथा बाहर होनेवाले अर्श, चर्मकाल आदि में लेपन करें। तात्पर्य यह है उस को पीने व लगानेसे, उपरोक्त रोग नष्ट होते हैं ॥९७ ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ १०॥ अर्श यंत्र विधान। गोस्तनप्रतिमयंत्रमिहद्वि-। च्छिद्रमंगुलिचतुष्कसमानम् ।। अंगुलीप्रवरपंचकवृत्तम् । कारयेद्रजतकांचनताप्रैः ॥ १०१ ॥ यंत्रवक्त्रमवलोकनिमित्तं । स्यादिहांगुलिपितोन्नमिताष्ठं ॥ . . व्यंगुलायतमिहांगुलिंदशं । पार्वतो विवरमंकुरकार्ये ॥ १०२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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