SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महामयाधिकारः (२५१) मेदादि स्थानों में अर्शरोगकी उत्पत्ति । पेढ्योनिनयनश्रवणास्य- । घ्राणजेष्वपि तदाश्रयरोगाः ॥ संभवत्यतितरां त्वचि जाता- । श्चमकीलनिजनामयुतास्ते ॥१२॥ भावार्थ:-ढ़ ( शिश्नेन्द्रिय ) योने, आंख, कान, मुंह और नाक में भी अर्श रोग की उत्पत्ति होती है । उस के होने पर, मेढ़ आदिस्थानों में उत्पन्न होने वाले अन्यरोगों की उत्पत्ति भी होती है । यह अर्श यदि त्वचा में हो तो उसे चमकीला कहते हैं ॥ ९२ ॥ . अर्शका असाध्य लक्षण । प्रस्तातिरुधिरातिसार- । श्वासशूलपरिशोषतृषार्तम् ॥ वर्जयेद्गुदगदांकुरवर्गो- । पीडितं पुरुषमाशु यशोऽर्थी ॥९३ ॥ भावार्थ:-जिससे अधिक रक्त पडता हो, और जो अतिसार, श्वास, शूल, परिशोष और अत्यंत प्यास आदि अनेक उपद्रवोंसे युक्त हो ऐसे अर्श रोगी को यश को चाहनेवाला वैद्य अवश्य छोडें ॥ ९३ ॥ __ अन्य असाध्य लक्षण । अंतरंगवलिजैगुदकीलै- । स्सर्वजैरपि निपीडितगात्राः ॥ पिच्छिलास्रकफमिश्रमलं येऽ- । जस्त्रमाशु विसति सतीदम् ॥ ९४ ॥ भावार्थ:- अंदर की (तीसरी) वलिमें उत्पन्न अर्श एवं सन्निपातज अर्शसे पीडित तथा जो सदा पिच्छिल रक्त व कफ मिश्रितमलको विसर्जन करते रहते हैं जिसे उस समय अत्यंत वेदना होती है ऐसे अर्श रोगीको असाध्य समझकर छोडें ॥ ९४ ॥ अन्य असाध्य लक्षण । वल्य एव बहुलाविलदुर्ना- । मांकुरैरुषहता गुदसंस्थाः ॥ तानरानखिलरोगसमूहैः- । कालयान्परिहरेदिह येषां ॥ ९५ ॥ भावार्थ:-- अर्शरोग से पीडित, गुदास्थानगत, वलिया, अत्यंत गंदली या सडगयी हों, एवं अनेक रोगोंके समूह से पीडित हों ऐसे अर्शरोगी को असाध्य समझकर छोडना चाहिये ॥ ९५ ॥ अर्शरोग की चिकित्सा । तच्चिकित्सितमतः परभुद्य- । त्पाटयंत्रवरभेषजशस्त्रैः ॥ उच्यतेऽधिकमहागुणयुक्तः । क्षारपाकविधिरप्यतियत्नात् ॥९६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy