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(२५०)
कल्याणकारके
अर्शके स्थान । तित्र एव वलयास्तु गुदोष्टा- दंगुलांतरनिवेशितसंस्थाः ॥ तत्र दोषविहितात्मकता दु- नामकान्यनुदिनं प्रभवति ॥ ८८॥
भावार्थ:--गुदास्थान में तीन वलय [ वलियां ] होते हैं और वे गुदा के मुख से लेकर तीनों एक २ अंगुल के अंतर में हैं । ( तात्पर्य यह कि एक २ वलय एकै २ अंगुलप्रमाण है । इस प्रकार तीनों वलय गुदा के मुख से लेकर तो। अंगुल प्रमाण हैं) इन वलयोंमें, वातादि दोषोत्पन्न पूर्वोक्त सभी अर्श उत्पन्न होते हैं । ॥ ८८ ॥
. अर्शका पूर्वरूप। अम्लिकारुचिविदाहमहोद- राविपाककृशतोदरकंपाः ॥ संभवंति गुदांकुरपूर्वो- त्पनरूपकृतिभूरिविकाराः ॥ ८९॥
भावार्थः-खट्टी ढकार आना और मुख खट्टा २ होजाना, अचि होना, दाह, उदर रोग होना, अपचन, कृशता व उदरकंप आदि बहुतसे लक्षण अर्शरोग होनेके पहिले होते हैं । अर्थात् बवाशरिके ये पूर्वरूप हैं ॥ ८९ ॥
मूलरोगसंज्ञा । ग्रंथिगुल्मयकृदद्भुतवृध्य-। टीलकोदरवलक्षयशूलाः ॥ तनिमित्तजनिता यत एते । मूलरोग इति तं प्रवदंति ॥ ९० ॥
भावार्थ:-अर्श रोगसे ग्रंथि, गुल्म, यकृत्वृद्धि, अष्टील, उदर, बलक्षय व शूल आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। अर्थात् अनेक रोगों की उत्पत्ति में यह मूलकारण है इसलिये इसे मूलरोग ! मूलव्याधि ] कहते हैं । ९० ॥
__ अर्शके असाध्य लक्षण । दोषभेदकृतलक्षणरूपो- । पद्रवादिसहितैर्गुदीलैः। .. .पीडिताः प्रतिदिनं मनुजास्ते । मृत्युवक्त्रमचिरादुपयांति ॥ ९१ ॥
भावार्थ:- जिसमें भिन्न २ दोषोंके लक्षण प्रगट हों अर्थात् तीनों दोषों के संपूर्ण लक्षण एक साथ प्रकट हों, उपद्रवोंसे संयुक्त हो ऐसे अर्श रोगसे पीडित मनुष्य शीघ्र ही यमके मुख में जाते हैं ॥ ९१ ॥
१ प्रवाहणी, विसर्जनी, संवरणी, ये अंदर से लेकर बाहर तक रहने वाली वलियों के क्रमश नाम हैं । २ अन्य ग्रंथों में, प्रथम वली १ अंगुल प्रमाण, बाकी की दो वलियां १॥ डेढ २ अंगुलप्रमाण हैं ऐसा पाया जाता है।
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