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________________ (14) - - हैं और रोगी को भी उन्हें स्पष्टतया समझने में दिक्कत होती है । सो उसकेलिए उपर्शय ( सात्म्य ) व अनुपशयके प्रयोगसे लक्षणोंको जानलेना चाहिये। [गूढलिंगं व्याधि उपशयानुपशयाभ्यां परीक्षेत ] इन चार साधनोंसे रोगकी संप्राप्ति ( Pathology ) को जानलेनी चाहिये । निदान, पूर्वरूप या पूर्वलक्षण, रूप, उपशय, व संप्राप्ति, इनको निदानपंचक कहते हैं। दर्शन, स्पर्शन व प्रश्न, इन साधनोंसे एवं निदान पंचकोंके अनुरोधसे रोगीकी परीक्षा करें। रोग परीक्षा होकर रोगनिश्चिति होनेपर, उसपर ज्ञानपूर्वक चिकित्सातत्वके आधारपर निश्चित औषधियोंकी योजना या उपचार जो हो सो करें । ध्रुव आरोग्यको प्राप्त करादेना यह आयुर्वेदीयचिकित्साका ध्येय है। चिकित्सा करते हुए दैवव्यपाश्रय, युक्तिव्यपाश्रय व सत्वावजय इनका अवलंबन करना पडता है । द्रव्यभूतचिकित्सा व अद्रव्यभूतचिकित्सा इस प्रकार चिकित्साके दो भेद हैं । द्रव्यभूतचिकित्सामें औषध व आहारोंका नियमपूर्वक उपयोग करना पड़ता है। अद्रव्यभूतचिकित्सामें साक्षात् औषध व आहारके प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होता है । रोगीको आवश्यक सूचना देना, व मंत्र, बलि, होम वगैरहका बाह्यतः उपयोग करना पडता है । आयुर्वेदने औषधका उपयोग बहुत बडे प्रमाणमें, अचूक, निश्चित व विना श्रमके ही किया है । औषधमें प्राण्यंग, वनस्पति, खनिजवस्तु व दूध वगैरे पदार्थोंका उपयोग किया है। कल्याणकारक ग्रंथमें प्राण्यंगका विशेष उपयोग नहीं है। कस्तूरी, गोरोचन सदृश प्राणियोंके शरीरसे मिलनेवाले अपितु प्राणियोंको कष्ट न होकर प्राप्त होनेवाले पदार्थीका उपयोग किया है । वनस्पति, खनिज, व इतर द्रव्योंका उपयोग करते हुए उनका रस, विपाकवीर्य व प्रभावका आयुर्वेदने बहुत सुंदर विवेचन किया है । वनस्पतिके अनेक कल्प बनाकर उनका उपयोग किया गया है। खनिज द्रव्योंको जैसेके तेसे औषधके रूपमे देनसे उनका शोषण शरीरमें होना शक्य नहीं है । खनिज द्रव्योंके रासायनिक कल्प ( Chemical Compounds ) का भी शरीर में शोषण होना कठिन होता है । इसलिए खनिज या इतर निरिंद्रिय द्रव्यपर सेंद्रिय वनस्पति के अनेक पुटभावना से संस्कार किया जाता है। हेतु यह है कि सेंद्रिय द्रव्योंके संयोग से उनका शरीर में अच्छी तरह शोषण होजाय । आयुर्वेद का रसशास्त्र इस प्रकार की संस्कारक्रियासे ओतप्रोत भरा हुआ है । रसशास्त्र पर जैनाचार्योन बहुत परिश्रम किया है। आज जो अनेकानेक सिद्धौषध, आयुर्वेदीयवैद्य प्रचारमें १. गूढलिंग रोगकी परीक्षाके लिए जो औषधोंका प्रयोग, अन्न व विद्दार होता है उसे उपशय कहते हैं । वह छह प्रकारका होता है । (१) हेतु विपरीत (२) व्याधिविपरीत (३) हेतुच्याधि विपरीत (४) हेतु विपर्यस्तार्थकारी (५) ज्यांधिविपर्यस्तार्थकारी (६) हेतुव्याधिविपर्यस्तार्थकारी ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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