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प्रकार है । काल शीत, उष्ण व वर्षाके भेदसे तीन प्रकारका है। अग्निका अर्थ पाचकाग्नि । वह मंद, तीक्ष्ण, विषम व समाग्निके भेदसे चार प्रकारका है । इनमें समाग्नि श्रेष्ठ है ।
शरीरको मूलस्थितिमें संभाल रखने का अर्थ प्रकृति है। शुक्र [ पुंबीज ] व आर्तव [ स्त्रीबीज ] के संयोगसे बीज धातु बनता है। बीज धातुकी जिस प्रकार स्थिति हो उस प्रकार शरीर बनता जाता है । इसके कारण शरीरकी प्रकृति व मनका स्वभाव बनता है। वात धातुसे वातप्रकृति बनती है। इसी प्रकार अन्यधातुवोंके बलाबलकी अपेक्षा तत्तद्धातुवोंकी प्रकृति बनती है।
बय बाल, तारुण्य व वार्धक्य के भेद से तीन प्रकारकी है। सत्वका अर्थ मन व सहनशक्ति । आहार, आदतें व शरीर के अनुकूल विहार आदि का विचार करना सात्म्य कहलाता है । आहार व रोग की विविध अवस्थावोंको [ आम, पक्क व पच्यमान वगैरह ] ध्यान में लेकर उनका सूक्ष्म विचार करके ही चिकित्सा करनी पडती है ।
चिकित्साशास्त्र का प्रधान आधार निदान है। निदान शब्द का अर्थ " मूल कारण " ऐसा होता है । परंतु शब्दार्थके योगरूढार्थसे वह गोगपरीक्षण इस अर्थ में प्रयुक्त होता है ।
__ आयुर्वेदीयनिदान में मुख्यतः दोषदुष्टिका विचार करना पडता है। भिन्न २ अनेक प्रकार के कारणोंसे दोषदुष्टि होती है । दोषोंका चय, प्रकोप व प्रसर होते हैं। दोष भिन्न २ दूष्योंमें जाते हैं । दोषदृष्य संयोग होता है । उसके बाद भिन्न २ स्थान दुष्ट होते हैं । उसका कारण दोषोंका स्थान-संश्रय है। किसी भी कारण से दोषों की दुष्टि होती है । इसलिए निदान करते हुए पहिले कारणोंका ही विचार करना पडता है। दोषोंका स्थानसंश्रय होनेके पहिले चयादिक होते हैं । तब निश्चित रोगस्वरूप आता है । इस समय रोग के पूर्वलक्षण प्रगट होते हैं । इसलिए निदान करते हुए पूर्वरूप या पूर्वलक्षणोंपर विचार करना पडता है । इसके अनंतर दोष दृष्यसंयोग होकर स्थानसंश्रय होता है व सर्वलक्षण स्पष्ट होते हैं। रोग निदान में लक्षणोंका विचार बहुत गहरी व बारीक दृष्टि से एवं विवेकपूर्वक करना पडता है । भावना अर्थात् मनसे जानने के लक्षण व शारीरिक लक्षण इस प्रकार लक्षण दो प्रकार के हैं । दोषद्रव्य व शरीरसंधारकधातुवों में संघर्षण होने से लक्षण उत्पन्न होते हैं। मानसिक लक्षण भी उसीसे प्रगट होते हैं। नवीन रोगोंमें लक्षण बहुत जल्दी मालुम होते हैं । और रोगी भी उन लक्षणोंको झट कह सकता है। परंतु पुराने रोगोंके लक्षण बहुत गूढ रहते
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