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काले, अर्थ व कर्म या असात्म्येंद्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध व परिणाम इनके हीन मिथ्यातियोगोंके कारणसे शरीर संधारक धातुओं में वैषम्य होता है, एवं दोषोत्पत्ति होती है । और दोषोंके चयप्रकोपादिक के कारण से रोगोत्पत्ति होती है । इस प्रकार आयुर्वेद का रोगोत्पत्ति के सम्बन्ध में अभिनवसिद्धांत है । रोग की चिकित्सा करते हुए इस अभिनव सिद्धांत का बहुत उपयोग होता है जिसे विशिष्टक्रिया के कारणसे शरीर के धातु सम अवस्था में आयेंगे, उस प्रकार की क्रिया करना, यही चिकित्सा का रहस्य है । धातुसाम्य करने की क्रिया करनेसे धातुव में समता आती है। धातु वैषम्योत्पादक कारणोंसे धातुवोंमें विषमता उत्पन्न होकर दोष रोगादिक उत्पन्न होते हैं । चिकित्साशास्त्र का सर्व विस्तार, अनेक प्रकार की प्रक्रियायें व पद्धति, ये सभी इसी एक सूत्र के आधार पर अवलंबित है । इस का बहुत विस्तार व सुंदर विवेचन के साथ सांगोपांगकथन कल्याणकारक ग्रंथ में किया गया है ।
धातु वैषम्यको नष्ट कर समताको प्रस्थापित करना यही चिकित्साका ध्येय है और वैद्यका भी यही कर्तव्य है । विषमै हेतुवोंका त्याग व समत्वोत्पादक कारणोंका अवलंबन करना ही चिकित्साका मुख्य सूत्र है, यह ऊपर कहा ही है । इस सूत्र का अवलंबनकर ही वैद्यको चिकित्सा करनी पडती है ।
चिकित्सा करते हुए दूय, देश, बल, काल, अनल, प्रकृति, वय, सत्व, साभ्य, आहार व पृथक् पृथक् अवस्था, इनका अवश्य विचार करना पडता है ।
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दूष्यका अर्थ रसरक्तादि स्थूलधातु । इनमें दोषों के कारणसे दूषण आता है । जिस प्रदेशमें अपन रहते हैं वह देश कहलाता है । यह जांगल, आनूप व साधारण के भेदसे तीन प्रकार है | शरीरशक्तिको बल कहते हैं । यह कालज, सहज व युक्तिकृत के भेद से तीन
१ कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः । सम्यग्योगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यैककारणम् ॥ अ. छ. सू. १
२ याभिः क्रियाभिर्जायंते शरीरे धातवः समाः ।
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चिकित्सा विकाराणां कर्मतद्भिषजां स्मृतम्॥ चरक सूत्र अ.
३ त्यागाद्विषमहेतूनां समानां चोपसेवनात् विषमा नानुबध्नंति जायंते धातवः समाः । चरकसूत्र
४ दृष्यं देश बलं कालमनलं प्रकृतिं वयः | सत्यं साम्यं तथाहारमवस्थाश्च पृथग्विधाः । सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यैषां दोषोपधनिरूपणे |
यो चिकित्सायां न स स्खलात जातुचित् !! असं सूत्र १२
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