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________________ (11) परंतु कुछ व्यापार बंद रहते हैं। उतनी ही उसे विश्रांति समझनी चाहिसे । शरीर के व्यापार होते हुए धातुओमें कुछ वैषम्य उत्पन्न होता ही है। वातपित्तकफ के व्यापार में उन उन धातुवोंका व्यय होता ही रहता है। उससे उनमें वैषम्य उत्पन्न होता है व दोषद्रव्य का निर्माण होता है । धातु-दोष सन्निध वास करते हैं । जबतक धातुद्रव्योंका बल अधिक रूपसे रहता है तबतक स्वास्थ्य टिकता है। दोष द्रव्योंका बल बढनेपर वे धातुओंको दूषित करते हैं व स्वास्थ्य को बिगाडते हैं । दोष व मलोंसे शरीरसंधारकधातु दूषित होते हैं व रोग उत्पन्न होता है। इस प्रकार धातु-दोष मीमांसा है। असात्म्येद्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध व परिणाम अथवा काल ये त्रिविध रोग के कारण होते हैं। [ असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति त्रिविधं रोगकारणम् ] असात्म्येद्रियार्थसंयोग से स्पर्शकृतभाव विशेष उत्पन्न होते हैं । स्पर्शकृतभाव विशेषोंसे त्रिधातु व मनपर परिणाम होता है, एवं दोष उत्पन्न होते हैं। प्रज्ञापराधका मनपर प्रथम परिणाम होता है। नंतर शरीरपर होता है । तब दोषवैषम्य उत्पन्न होता है । कालका भी इसीप्रकार शरीर व मनपर परिणाम होकर दोषोत्पत्ति होती है। एवं दोषोंका चय, प्रकोप, प्रसर व स्थानसंश्रय होते हैं। उससे संरभ, शोथ, विद्रधि, व्रण, कोथ होते हैं । दोषोंकी इस प्रकारकी विविध अवस्था रोगोंके नियमित कारण व दोषदूष्य संयोग अनियमितकारण और विष, गर, सेंद्रिय-विषारी क्रिमिजंतु इत्यादिक रोगके निमित्तकारण हैं। आधुनिक वैद्यकशास्त्र में जंतुशास्त्रका उदय होनेसे रोगोंके कारणमें निश्चितपना आगया है, इसप्रकार आधुनिक वैद्योंका मत है। जंतुके मिलने मात्र से ही वह उस रोगका कारण, यह कहा नहीं जासकता । कारण कि कितने ही निरोगी मनुष्यों के शरीरमें जंतुके होते हुए भी वह रोग नहीं देखाजाता है | जंतु तो केवल बीजसदृश है। उसे अनुकूल भूमि मिलनेपर वह वढता है । उससे सेंद्रिय, विषारी जंतु बनता है व रोग उत्पन्न होता है। परंतु अनुकूलभूमि न रहनेपर अर्थात् जंतु की वृद्धि के लिए अनुकूल शारीरिक परिस्थिति नहीं रहनेपर, ऊसर भूमिपर पडे हुए सस्यबीज के समान जंतु बढ नहीं सकता है और रोग भी उत्पन्न नहीं कर सकता है। यह अनुकूलपरिस्थिति का अर्थ ही दोषदुष्टशरीर है। कॉलरा व प्लेग मरखेि भयंकर रोगोंमें भी बहुत थोडे लोगोंको ही ये रोग लगते हैं। सबके सब उन रोगोंसे पीडित नहीं होते । इसका कारण ऊपर कहा गया है, अर्थात् जंतु तो इतर निमित्तकारण के समान एक निमित्तकारण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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