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________________ ( 15 ) - - लाते हैं, वह जैनाचार्य व बौद्धोंकी नितांत प्रतिभा व अविश्रांत परिश्रम का फल है । अनेक प्रतिभावान्, त्यागी, विरागी आचार्योंने जन्मभर विचारपूर्वक परिश्रम, प्रयोगपूर्वक अनुभव लेकर अनेक औषधरत्नोंका भंडार संगृहीत कर रखा है। रसशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, प्राणिशास्त्र, निघंटु व औषधिगुणधर्मशास्त्र वगैरे अनेक शास्त्रोंका निर्माण अप्रतिमरूप से कर इन आचार्योने आयुर्वेदजगत् पर बड़ा उपकार किया है । रोग की चिकित्सा करते हुए अनेक भिन्न भिन्न तत्वोंका अवलंबन आयुर्वेदने किया है । बृंहण व लंघनचिकित्सा करते हुए अनेक भिन्न भिन्न प्रक्रियाओंका उपयोग किया है । अव्यभूतचिकित्सा व द्रव्यभूतचिकित्सा ये दोनों दोषप्रत्यनीक चिकित्सा पद्धतिपर अवलंबित हैं। शरीर में दूषित दोषदुष्टि को दूर कर अर्थात् दोषवैषम्य व उससे आगके दोषोंको नाश कर धातुसाम्यप्रवृत्ति करना यह चिकित्सा का मुख्यमर्म है । इस ध्रुवतत्व को सामने रखकर ही आयुर्वेदीय सूत्र, और उस से संचालितपद्धतिका विकास हुआ है । वह चिकित्सा निश्चित, कार्यकारी व शास्त्रीय है। दोषोंके अनुरोध से चिकित्सा की जाय तो रोगी अच्छीतरह व शीघ्र स्वस्थ होता है । एवं धातुसाम्यावस्था शीघ्र आकर उसका बल भी जल्दी बढता है । मांसवृद्धि शीघ्र होकर रुग्णावस्था अधिक समय तक टिकती नहीं । समस्त वैद्य व डॉक्टर बंधुवोंसे निवेदन है कि वे इस प्रकार की दोषप्रत्यनीकचिकित्सापद्धति का अभ्यास करें व उसे प्रचार में लानेका प्रयत्न करें, तो उन को सर्वत्र यश निश्चित रूपसे मिलेगा। अब आयुर्वेद के स्वास्थ्यसंरक्षणशास्त्र के संबंध में थोडासा परिचय देकर इस विस्तृतप्रस्तावनाका उपसंहार करेंगे। आयुर्वेद का दो विभाग है । एक स्वास्थ्यानुवृत्तिकर व दूसरा रोगोच्छेदकर । उन में रोगोच्छेदकर शास्त्र का ऊहापोह ऊपर संक्षेप में किया गया है । स्वाथ्यानुवृत्तिकर शास्त्र या जिसे आरोग्यशास्त्र के नामसे भी कहा जासकता है, उसका भी विचार आयुर्वेदशास्त्रने किया है। जल, वायु, रहनेका स्थान, काल इत्यादिका विचार जानपदिक आरोग्यमें करना पडता है । अन्न, जल, विहार, विचार आचार आदिका विचार व्यक्तिगत आरोग्यमे करना पडता है। स्वास्थ्यका शरीरस्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य व ऐंद्रियिक स्वास्थ्य इस प्रकार तीन भेद हैं। केवल रोगराहित्यका नाम स्वास्थ्य नहीं है । अपितु शरीरस्थ सर्वधातु की समता, समाग्नि रहना, धातुक्रिया १. समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नारमेंद्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥ वाग्भट For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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