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व मलक्रिया सम रहना, मन व इंद्रिय सम रहकर वृद्धिप्रकर्ष उत्कृष्ट प्रकारसे रहना, इसे स्वास्थ्य कहते हैं । वातादिक त्रिधातुवोंके प्रकृतिभूत रहनेपर आरोग्य टिकता है । [ तेषां प्रकृतिभूतानां तु खलु वातादीनां फलमारोग्यम् ] ।
वातादिकोंके साम्यपर स्वास्थ्य अवलंबित है। जिससे स्वास्थ्य टिककर रहेगा ऐसा वर्तन प्रतिनित्य करें, इस प्रकार आयुर्वेदका उपदेश है । आहार, स्वप्न व ब्रम्हचर्य ये आरोग्यके मुख्य आधार हैं । हितकर आहार व विहार के कारणसे रोगोत्पत्ति न होकर आरोग्य कायम रहता है । स्वास्थ्य प्राप्त होता है। किसी भी कार्यको करते हुए विचारपूर्वक करना, समबुद्धि रखकर चलना, सत्यपर रहना, क्षमावन् रहना, इंद्रियभोगोंपर अनासक्त रहना, व पूर्वाचार्योक आदेशानुसार सुमार्गका अवलंबन करना, इन बातोंसे इंद्रियस्वास्थ्य बना रहता है।
ब्रम्हचर्य, व मानसिक संयमसे विशेषतः सकलेंद्रियार्थसंयमसे मानसिक स्वास्थ्य टिकता है। शुक्रधातुका ओज व परमओज ये शरीरके मुख्य प्रभावक हैं । ब्रम्हचर्यके पालनसे शरीरमें ये जमकर रहते हैं । शरीरका ओज अत्यंत बुद्धिवर्धक, स्मृतिवर्द्धक, बलदायक होनेसे ब्रम्हचर्यके पालनसे बुद्धी अधिक तेजस्वी होती है । स्मृति तीव्र बनी रहती है । शरीरका बल व तेज उत्तम होता है, वह मनुष्य बडा पराक्रमी शूर व वीर होता है। अपने आर्यशास्त्रोमें ब्रम्हचर्यके महत्वका वर्णन किया है, वह सत्य है।
__ ब्रह्मचर्य का पालन विवाहके बाद भी करना चाहिए । ब्रह्मचर्यसे रहकर धर्मसंततिको चलाने के लिए, पुत्र की कामना से ही स्त्री-सेवन करना चाहिए। केवल विषयवासनाकी पूर्ति के लिए आसक्त होना, यह व्यभिचार है। इस प्रकार शास्त्रोंका आदेश है । जैनाचार्योंने स्वदारसंतोषत्रत [ ब्रह्मचर्य ] का उपदेश करते हुए स्वस्त्रीमें भी अत्यासक्ति रखने की मनाई की है। यदि ब्रह्मचर्य के इस उद्देश को लक्ष्य में रखकर संयम का पालन करें तो मनुष्य का शरीर व मन अत्यंत स्वस्थ व सुदृढ बन सकते हैं । सारांश यह है कि युक्त आहार, विहार व ब्रह्मचर्य के पालन से आजन्मस्वास्थ्य व दीर्घजीवित की प्राप्ति होती है ।
__ आयुर्वेद में और उसी का कल्याणकारक ग्रंथ होनेसे उस में रोगच्छेदकर शास्त्रका व स्वास्थ्यानुवृत्तिकर शास्त्रका बहुत विस्तृत व सुंदर विवेचन किया गया है।
१. तच्च नित्यं प्रयुजीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते ।
अजातानां विकाराणामनुत्पतिकरं च यत् ॥ चरकसूत्र अ. ५।१०
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