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प्रकृतग्रंथका वैशिष्ट्य.
कल्याणकारक ग्रंथ की रचना जैसी सुंदर है, उसी प्रकार उस में कथित अनेक चिकित्सा प्रयोग भी अश्रुतपूर्व व अन्य वैद्यक ग्रंथोंके प्रयोगोंसे कुछ विशेषताओंको लिएहुए हैं। सदा ध्यानाध्ययन व योगाभ्यास में रत रहनेवाले महर्षियोंकी निर्मलबुद्धि के द्वारा प्रकृतग्रंथ का निर्माण होने से इस ग्रंथ में प्रतिपादित प्रयोगोंमें खास विशेषता रहनी चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं। आयुर्वेदप्रेमी वैद्योंको उचित है कि वे ऐसे नवीन योगोंको प्रयोग [ Practical ] में लाकर संशोधनात्मक पद्धति से अनुभव करें जिससे आयुर्वेद विज्ञान का उत्तरोत्तर उद्योत हो।
प्रकृत ग्रंथ में प्रत्येक रोगोंका निदान, पूर्वरूप, संप्राप्ति, चिकित्सा, साध्यासाध्य विचार आदि पर सुसंबद्ध रूपसे विवेचन किया गया है । इसके अलावा अनेक रस रसायन व कल्पोंका प्रतिपादन स्वतंत्र अध्यायोंमें किया गया है। साथ में महामुनियोंके योगाभ्यास से ज्ञात रहस्यपूर्ण रिष्टाधिकार भी दिया गया है । एक बात खास उल्लेखनीय है कि इस ग्रंथ में किसी भी औषधप्रयोग में मद्य, मांस व मधु का उपयोग नहीं किया गया है । मद्य, मांस, मधु हिंसाजन्य हैं। जिनकी प्राप्ति में असंख्यात जीवोंका संहार करना पडता है। अतएव अहिंसा-धर्म के आदर्श को संरक्षण करने के लिए इनका परित्याग आवश्यक है। इसके अलावा ये पदार्थ चिकित्सा-कार्य में अनिवार्य भी नहीं हैं । क्यों कि आज पाश्चात्य देशोंमें अनेक वैज्ञानिक वैद्य इन पदार्थोंकी मानवीय शरीर के लिए निरुपयोगिता सिद्ध कर रहे हैं । आर्यसंस्कृति के लिए तो हिंसाजन्य निंद्य पदार्थोकी आवश्यकता ही नहीं ।
हमारे वैद्यबंधु अनुदिन की चिकित्सा में सर्वथा वनस्पति, कल्प व रसायनोंका उपयोग करने की आदत डालेंगे तो, भारत में औषधि के बहाने से होनेवाली असंख्यात प्राणियोंकी हिंसा को बचाने का श्रेय उन्हें गिल जायगा।
इस ग्रंथ के उद्धार में अथ से इति तक स्व. धर्मवार सेठ रावजी सखाराम दोशी ने प्रयत्न किया था। उनकी मनीषा थी कि इस ग्रंथ का प्रकाशन समारंभ मेरी ही अध्यक्षता में कर, उस प्रसंग में अनेक वैद्योंको एकत्रित कर आयुर्वेद की महत्तापर खूब ऊहापोह किया जाय । परंतु कालराज की क्रूरता से उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। तथापि आयुर्वेद के प्रति उनका जो उत्कट प्रेम था, उसके फलस्वरूप आज हम उनकी इच्छा की पूर्ति इस प्रस्तावना के द्वारा कर रहे हैं।
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