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________________ कर्मचिकित्साधिकारः। (५६५) भावार्थ:-क्षार, छेदन, भेदन, लेखनकर्म करता है। त्रिदोषघ्न औषधियों से, साधित होने से तीनों दोषों को नाश करता है । जिस में शस्त्रादिक का प्रयोग नहीं होता है ऐसी विशिष्टव्याधि में क्षारकर्म प्रयुक्त होता है [जैसे क्षार पानकर्म में प्रयुक्त होता है लेकिन शस्त्र नहीं] इसलिये शस्त्र, अनुशस्त्रों से, क्षर श्रेष्ठ है । प्रतिसारणीयक्षार (जो पहिले कहा गया है) को, कुष्ट, सम्पूर्ण अर्बुद, नाडीव्रण,न्यच्छ,भगंदर, बाह्यक्रिमि व बाह्यविष, सात प्रकार के मुखरोग, अधिजिव्हा, उपजिव्हा, दंत, वैदर्भ, मेदोरोग, ओष्ठप्रकोप, तीन प्रकार के रोहिणी, इन रोगों में प्रयोग करना चाहिये । गर ( कृत्रिमविष ) उदररोग, गुल्मरोग, अग्निमांद्य, अग्मरी, शर्करा, नानाप्रकारके ग्रंथिरोग, अर्श, अंतर्गत तीव्र विषरोग व कृमिरोग, श्वासकास, भयंकर अर्णि, इन रोगों में, पानीय क्षार [पीने योग्य क्षार ] प्रयुक्त होता है ॥ १५॥ १६ ॥ १७ ॥ . अथाग्निकर्मवर्णन. क्षारकर्भ से अग्निकर्म का श्रेष्ठत्व, अभिकर्म से वय॑स्थान व दहनोपकरण. क्षारैरप्यतिभेषजैनिशितसच्छखैरशक्यास्तु ये । रोगास्तानपि साधयेदथ सिरास्नायवस्थिसंधिष्वपि ॥ नैवाग्निः प्रतिसेव्यते दहनसत्कर्मोपयोग्यानपि । .. द्रव्याण्यस्थिसमस्तलोहशरकांडस्नेहपिण्डादयः ॥ १८ ॥ भावार्थ:-पूर्वोक्त क्षार से अग्नि अत्यधिक तीक्ष्णगुणसंयुक्त है । अग्नि से जलाये हुए कोई भी रोग समूल नाश होते हैं [ पुन: उगते भी नहीं है और जो रोग क्षार, औषधि व शस्त्रकर्म से भी साध्य नहीं होते हैं वे भी अग्निकर्म से साध्य होते हैं। इसलिये क्षारकर्म से अग्निकर्म श्रेष्ठ है । स्नायू, अस्थि व संधि में अग्निकर्म का प्रयोग नहीं करना चाहिये । चाहे वह रोगी भले ही अग्निकर्मके योग्य हो । हड्डी, संपूर्ण १क्षारादग्निगरीयान् क्रियासु व्याख्यातः । तद्दग्धानां रोगाणामपुनर्भावाद्वैषज्ञ शस्त्रक्षारैरसाध्यानां तत्साध्यत्वाच्च ॥ इति ग्रन्थांतरं ॥ २ ग्रंथांतरोमें " इह तु सिरारनायुसंध्यस्थिष्वपि न प्रतिषिद्धोऽग्निः " यह कथन होनेसे शंका हो सकती है कि यहां आचार्यने कैसा विपरीत प्रतिपादन किया । इसका उत्तर इतना ही है कि, वह ग्रंथांन्तर का कथन भी, एक विशेषापेक्षा को लिया हुआ है । जब रोग अग्निकर्म को छोडकर साध्य हो ही नहीं सकता यदि अग्नि कर्म न करें तो रोगी का प्राण नाश होता है। केवल ऐसी हालत में अग्निकर्म करना चाहिये, यह उसका मतलब है । इससे अपने आप सिद्ध होता है सर्व साधारण तौरपर स्नाय्वादिस्थानों में अग्निकर्म का निषेध है। इसी अभिप्राय से यहां भी निषेध किया है। ___ अथवा ग्रंथांतर में उन्होने अपना मत व्यक्त किया है । सम्भव है उनसे उमादित्याचार्यका मत भिन्न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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