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________________ (५६६) कल्याणकारके लोह, शर, शलाका, घृत, तैल, गुड, गोमय आदि दहन के उपकरण हैं ॥ १८ ॥ ____ अग्निकर्मवयंकाल व उनका भेद. , ग्रीष्मे सच्छादि त्यजेदहनसत्कर्मात्र तत्पत्यनी-। कं कृत्वात्ययिकामयेति विधिवच्छीतद्रवाहारिणः ॥ सर्वेष्वप्यूतुषु प्रयोगवशतः कुर्वीत दाहक्रियां । तद्दग्धं द्विविधं भिषग्विनिहितं त्वङ्मांसदग्धक्रमात् ॥ १९ ॥ ... भावार्थ:-~-प्रष्मि व शरदृतुमें अग्निकर्म नहीं करना चाहिये । यदि व्याधि आत्ययिक (आशु प्राणनाश करने वाला हो, और अग्निकर्म से ही साध्य होनेवाला हो तो, ऋतुओं में के विपरीत विधान (शीताच्छादन, शीतभोजन शीतस्थान, शीतद्रव पान आदि विधान) करके, अग्निकर्म करे, अतः यह मथितार्थ निकला कि प्रसंगवश सभी ऋतुओं अग्निकर्म करना चाहिये । वह दग्धकर्म, त्वग्दग्ध मांसदग्ध इस प्रकार दो भेद से विभक्त है ।। १९ ॥ स्वग्दग्ध, मांसदग्धलक्षण. त्वग्दग्धेषु विवर्णतातिविविधस्फोटोद्भवश्चर्मसं-। कोचश्चातिविदाहता प्रचुरदुर्गधातितीवोष्मता ॥ . मांसेप्यल्परुगल्पशोफसहितश्यामत्वसंकोचता। शुष्कत्वत्रणता भवेदिति मतं संक्षेपंसल्लक्षणैः ॥ २० ॥ भावार्थ:- त्वचामें अग्निकर्मका प्रयोग करनेपर उसमें विवर्णता, अनेक प्रकार फफोले उठना, चर्मका सिकुडना, अतिदाह, अत्यधिक दुर्गंध, अति तीव्र उष्णता ये लक्षण प्रकट होते हैं अर्थात् यह त्वग्दग्ध का लक्षण है। मांसमें दग्धक्रिया करनेपर अल्पशोफ और व्रणका कालापना, सिकुडना, सूखजाना, ये लक्षण प्रकट होते हैं । अर्थात यह मांसदग्ध का लक्षण है ॥ २० ॥ दहनयोग्यस्थान, दहनसाध्यरोग व दहनपश्चात् कर्म. भृशंखेषु दहेच्छिरोरुजि तथाधीमंथके वर्त्मरो-। गेष्वप्यादुकूलसंवृतमथाह्यारोमकूपादृशम् ।। वायावुगतर व्रणेषु कठिनप्रोद्भुतमासेषु च । गंथावर्बुदचर्मकीलतिलकालाख्यापचेष्वप्यलं ॥ २१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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