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________________ कल्याणकारके सीवन्यामुदरंषु संधिषु गले नाभौ तथा मेहने । हृच्छ ले च विवर्जयेनिशितसक्षारं महाक्षारवित् ॥ . क्षारोऽयं विषशस्त्रसदहनज्वालाशनिप्रख्यया । ...... स्णदज्ञानिनियोजितः सुभिषजा हन्यानियुक्तो गदान् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-'यह क्षार, चिकना, साधारण सफेद, पिग्छिल ( पिलपिला ) सुख से ग्रहण योग्य, थोडीसी पीडा करनेवाला, व्यापक आदि सभी गुणोंसे संयुक्त है । दुर्बल उरक्षित, रक्तपित्त, अधिकमूर्छा, तीवज्वरसे पीडित, अंतःशल्य से युक्त, अत्यंत उष्ण से पीडित, बालक, मदसे संयुक्त, अतिवृद्ध, गर्भिणी, अतिसारपीडित, नपुंसक, अधिक प्यास व दुष्टभय से आक्रांत, अश्मरी, श्वास, क्षय से पीडित, ऐसे मनुष्यापर क्षारकर्म नहीं करना चाहिये अर्थात् ये क्षारकर्म के अयोग्य हैं। मर्म, स्नायु, सिरा, नख, तरुणास्थि, आंख, अल्प मांसयुक्त प्रदेश, स्रोत, इन स्थानोमें, मर्मरोग से संयुक्त व आहार से द्वेष करनेवालो में, सावनी, उदर, संधि [ हड्डियों की जोड ] गल, नाभि, शिश्नेदिय, इन स्थानोमें व हृदयशूलसे पीडितो में भी क्षारकर्मको जाननेवाला वैद्य, तीक्ष्ण क्षारकर्म नहीं करें । अज्ञानी वैद्य के द्वारा प्रयुक्त क्षार, विष शस्त्र, सर्प, अग्नि, बिजली के समान शीघ्र प्राणों का घात करता है । विवेकी वैद्य द्वारा प्रयुक्त क्षारकर्म, अनेक रोगों को नाश करता है ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥ क्षारका श्रेष्ठत्व, प्रतिसारणीय व पानीयक्षारप्रयोग. क्षारः छेद्यविभेद्यलेख्यकरणादोषत्रयघ्नौषध- । व्यापारादधिकं प्रयोगवशतः शस्त्रानुशस्त्रेष्वपि ॥ तत्र स्यात्प्रतिसारणीय विहितः कुष्ठेऽखिलानर्बुदे-। नाड्यां न्यच्छभगंदरक्रिमिविष बाह्ये तु योज्यात्सदा ।। १५ ॥ सप्तस्वप्यधिजिहिकोपयुतजिह्वायां च दंतोभ्दवे । वैदर्भ बहुमंदसाप्पहते ओष्ठप्रकोप तथा ॥ योज्यस्स्यादिह रोहिणीषु तिसृषु क्षारो गरेषार्जितः । । पानीयोप्युदरेषु गुल्मनिचये स्यादग्निसंङ्गेष्वपि ॥ १६ ॥ अश्मर्यामपि शर्करासु विविधग्रंथिष्वथार्शस्वपि । स्वांतस्तीवविषक्रिमिष्वपि तथा श्वासेषु कासेष्वपि ॥ प्रोद्यद्भासिषु चाप्यनीणिषु मतः क्षारोयमस्मादपि। क्षाराद ग्नरतीव तीक्ष्णगुणवत्तद्द ग्धनिर्मूलनात् ।। १७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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