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________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५६३) variarrrrrrrman. माया. क्षारस्यापि विनष्टवीर्यसमये क्षारोदकैरप्यति । क्षारद्रव्यगणैश्च तद्दहनतः शक्तिः समाप्याययेत् ॥ १० ॥ भावार्थ:--क्षार का प्रतिसारणीय क्षार ( शरीर के बाह्य प्रदेशों में लगाने वा टपकाने योग्य ) पानीय क्षार ( पीने योग्य ) इस प्रकार दो भेद है। क्षारके पाक की अपेक्षा से, स्वल्पद्रव, अतिद्रव इस प्रकार पुनः दो भेद होते हैं। अल्प शक्तिवाले औषधियों से साधित हो जाने से, क्षार की शक्ति जब नष्ट (कम) हो जाती है तो उसे क्षारंजल में डालकर पकाने से, अथवा क्षारऔषध समूहों के साथ जलाने से बह वीर्यवान होता है । इसलिये हीनशक्तिवाले क्षार को,उक्त क्रिया से वीर्य का अ धान करना चाहिये ॥ १० ॥ क्षारका सम्यग्दग्धलक्षण व पश्चास्क्रिया. व्याधौ क्षारनिपातने क्षणमतः कृष्णत्वमालोक्य तत् । क्षारं क्षीरघृताम्लयष्टिमधुकैः सौवीरकैः क्षालयेत् ॥ पश्चाक्षारनिवर्तनादनुदिनं शीतानपानादिभिः । शीतैरप्यनुलेपनैः प्रशमयेत्तं क्षारसाध्यातुरम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-त्वक् मांसादिगत वातरोगमें क्षार के पातन करनेपर उसी क्षणमें यदि वह काला पड़ गया (क्षार पातन करने पर काला पडजाना यह सम्यग्दग्ध का लक्षण है) तो उस क्षारको दूध, घी, अग्ल, मुलैठी इनसे संयुक्त कांजी से धोना चाहिये । इस प्रकार क्षार को धोकर निकालने के पश्चात् हमेशा क्षारसाध्यरोगीको शीत अन्नपानादिकों से व शीतद्रव्योंके लेपन से उपचार करना चाहिये ॥११॥ क्षारगुण व क्षारवयंरोगी. श्लक्ष्णः शुक्लतरातिपिच्छिलमुखग्राह्योऽल्परुग्व्यापकः । क्षारस्स्यादगुणवाननेन सततं क्षारेण या इमे ॥ क्षीणोरःक्षतरक्तपित्तबहुमूीसक्ततीव्रज्वरा- । न्तश्शल्योष्मनिपीडिता शिशुमदलांतातिवृद्धा अपि ॥ १२ ॥ गर्भिण्योप्यतिभित्रकोष्टविकटक्लीवस्तृषादुर्भया-। क्रांतोप्युद्धतसाश्मरीपदगणश्वासातिशोषः पुमान् ॥ मर्मस्नायुसिरातिकोमलनखास्थ्यक्ष्याल्पमांसदः । सस्त्रोतस्वपि पर्मरोगसहितेष्वाहारविद्वेषिषु ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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