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________________ (५६२) कल्याणकारके MAVAAAA प्रतिज्ञा. तासां चारुचिकित्सितं विविधमत्कृष्टप्रयोगात्रसा-। ' छिष्टान् शिष्टजनप्रियान् रसमहाबंधप्रबंधानतः ॥ .... कल्पान्कल्पकुलौपमानपि मनस्संकल्पसिद्धिप्रदा-। नल्पैः श्लोकगणैब्रवीमि नितरामायुष्करान् शंप्रदान् ॥ ८॥ . भावार्थ:--अब यहांसे आगे, उन आपत्तियों ( रोगों ) की श्रेष्टचिकित्सा व शिष्टजनों को प्रियभूत, रसों के महान् बंधन ( संग्रह ) से संयुक्त, सरस नाना प्रकार के उत्कृष्ट प्रयोग, और कल्पकुल के समान रहनेवाले, इष्टार्थ को साधन करने. वाले, आयुष्य को स्थिर रखने व बढानेवाले सुखदायक अनेक औषधकल्पोंको थोड श्लोकों द्वारा वर्णन करेंगे ॥ ८ ॥ अथ क्षाराधिकारः । क्षारका प्रधानव व निरुक्ति. याथासख्यविधानतः कृतमहाकर्मोद्भवव्यापदं । .. वक्ष्ये चारु चिकित्सितं प्रथमतः क्षाराधिकारः स्मृतः ॥ शस्त्रेषग्रमहोपशस्त्रनिचये क्षारप्रधान तथा । दत्तस्तत्क्षणनात्ततः क्षरणतः क्षाराध्यमित्यारतः ॥ ९ ॥ भावार्थ:-पूर्वोक्त क्षार अदि चार महान् कर्मों के प्रयोग बराबर न होनेके कारण, जो महान् व्याधियां उत्पन्न होती हैं, उनको और उनकी योग्यचिकि सा को भी क्रमशः वर्णन करेंगे । सब से पहिले क्षारकर्म का वर्णन किया जायगा । भयंकर शस्त्र व उपशस्त्रकर्मोसे भी क्षारकर्म प्रधान है । प्रयुक्त क्षार, त्वक् मांस आदिकों को हिंसा करता है अर्थात् नष्टभ्रष्ट करता है, इसलिये अथवा दुष्ट मांस आदिकों को अलग कर देता है अर्थात् गिराता है। इसलिये भी इसे क्षार कहा है अथात् यह क्षार शब्द की निरुक्ति है ॥ ९॥ क्षार का भेद. क्षारोयं प्रविसारणात्मविषयः पानीय इत्येव वा । क्षारस्य द्विविधो विषाकवशतः स्वल्पद्रवोऽतिद्रवः ॥ १ कुजोपमानपि इति पाठांत। २ क्षणनाक्षारः क्षरणादा क्षारः ॥ क्षणनात् स्वकमांसादिहिंसनात् ॥ भरणात् दुष्वङ्मांसादिचालनात् शातनादित्यर्थः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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