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________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५६१) भावार्थः--इसलिये बहुत अर्थों को जाननेवाला वैद्य ही इस कार्य के लिये नियत है ऐसा महर्षिगण कहते हैं। विद्या के बल से चिकित्सा करनेवालेका ही नाम वैद्य है । विद्या के बल से और कुछ काम करनेवालों को वैद्य नहीं कहते हैं। अपितु विद्याके बलसे रोगमुक्त करनेवाला वैद्य कहलाता है । अर्थकथन व्याख्यान से ही जाना जाता है। सामान्य में विशेष रहता है जैसे पद्म कहने से उस में पंकज आदि समस्त विशेष अंतर्भूत होजाते हैं ॥ ५ ॥ चतुर्विधर्म वैद्यं कर्म चतुर्विध व्यभिहितं क्षाराग्निशस्त्रौषधै- । स्तकेन सुकर्मणा सुविहितेनाप्यामयस्साध्यते ।। द्वाभ्यां कश्चिदिह त्रिभिर्गुरुतरः कश्चिच्चतुर्भिस्सदा। साध्यासाध्यविदत्र साधनतम ज्ञात्वा भिषक्साधयेत् ।। ६ ।। भावार्थ:-चिकित्साप्रयोग, क्षारकर्म, अग्निकर्भ, शस्त्रकर्म व औषधकर्म इस प्रकार चार भेद से विभक्त है । यदि उन में किसी एक क्रिया का भी प्रयोग अच्छी तरह किया जाय तो भी रोग साध्य होता है अर्थात् ठीक होता है। किसी२रोग के लिये दो क्रियावोंको उपयोग करना पडता है । किन्हीं २ कठिन रोगोंके लिये तीन व और भी कठिन हो तो चारों कर्मोके प्रयोग की आवश्यकता होती है। रोग की साध्य असाध्य आदि दशावोंको जानने वाला वैद्य, साध्यरोगों का चिकित्सा से साधन करें ॥ ६ ॥ चतुर्विधकर्मजन्यआपत्ति.. तेषामेव सुकर्मणां सुविहितानामप्युपेक्षा किया । स्वज्ञानादथवातुरस्य विषमाचाराद्भिषग्मोहतः ॥ योगायोगगुणातियोगविषमव्यापारनैपुण्यवै-। कल्यादत्र भवंति संततमहासंतापकृयापदः ॥ ७ ॥ भावार्थ:---उपरोक्त चतुर्विध कर्मोके प्रयोग अच्छी तरह से करने पर भी यदि पश्चात् कर्म अथवा पथ्य आहार विहार सेवन आदि कराने में अज्ञान (प्रमाद) से उपेक्षा करें व रोगीके विषम आचरण से, वैद्य के अज्ञान से, योग, अयोग, अतियोगोंके लक्षण न जानने से व अतियोग जैसे विषम कार्य अर्थात् अवस्था उपस्थित हो जावें तो उस हालत में प्रतीकार करने की निपुणता न रहने से, हमेशा महान् संताप को उत्पन्न करनेवाली अनेक आपत्तियां उपस्थित हो जाती हैं । ७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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