________________
(५८२)
कल्याणकारके
शांति का संचार होता है । आत्मा और इंद्रिय मजबूत होते हैं ॥ ६१ ॥
वातादिसे दुष्ट व शुद्धशोणितका लक्षण. वातेनात्यसितं सफेनमरुणं स्वच्छं सुशीघ्रागमं । दुष्ट स्याद्रधिरं स्वपित्तकुपितं नीलातिपीतासितम् । विसं नेष्टमशेषकीटमशकैस्तन्मक्षिकाभिस्सदा । श्लेष्मोद्रेककलंकितं तु बहलं चात्यंतमापिच्छिलम् ।। ६२ ॥ मांसाभासमपि क्षणादतिचिरादागच्छति श्लेष्मणा । शीतं गैरिकसमभं च सहज स्यादिंद्रगोपोपमम् ॥ तच्चात्यंतमसंहतं यविरलं वैवर्णहीनं सदा ।
दृष्त्वा जीवमयं च शोणितमलं संरक्षयेदक्षयम् ॥ ६३ ॥ भावार्थ:-वात से दूषित रक्त अतिकृष्ण, फेन [ झाग ] युक्त, स्वच्छ, शीघ्र बाहर आनेवाला [ शीघ्र बहनेवाला ] होता है । पित्त से दूषित रक्त, नीला, अत्यंत पीला, अथवा काला, दुर्गंधयुक्त, [ आमगंधि ] होता है । एवं, वह सर्वप्रकार के कीट, मशक व मक्खियों के लिये अनिष्ट होता है (जिससे कीट आदि, उस रक्त पर बैठते नहीं, पीते नहीं ) कफ से दूषित शोणित, गाढा, पिच्छिल, मांसपेशी के सदृश वर्णवाला बहुत देरसे स्राव होनेवाला शीत और गेरु [ गेरु के पानी । के सदृश वर्णवाला अर्थात् सफेद मिला हुआ लाल वर्णका होता है ।प्रकृतिस्थ रक्त, इंद्रगोप के समान लाल, न अधिक गाढा न पतला व विवर्णरहित होता है । ऐसे जीवमय रक्त ( जीवशोणित ) को हमेशा रक्षण करना चाहिये अर्थात् क्षय नहीं होने देना चाहिये। ६२ ॥ ६३ ॥
হিৰখা অনুখানিহাৰ वित्राव्यं नैव शीते न च चटुलकठोरातपे नातितप्त । नास्विन्ने स्निग्धरूक्षे न च बहुविरसाहारमाहारिते वा ।। नाभुक्ते भुक्तमंतं द्रवतरमशनं स्वल्पमत्यंतशीतं ।।
शीतं तोयं च पीतं रुधिरमपहरेत्तस्य तं तद्विदित्वा ॥ ६४ ॥ भावार्थ:---अत्यधिक शीत व उष्ण काल में, रोगी भयंकर धूप से तप्तायमान हो रहा हो, जिस पर स्वेदनकर्म नहीं किया हो अथवा अधिक पसीना निकाला गया हो जो अधिक स्निग्ध व अधिक रूक्ष से युक्त हो, जिसने बहुत विरस आहार को भोजन कर लिया हो एवं जिसने बिलकुल भोजन ही नहीं किया हो ऐसी हालतोंमें शिराव्यध कर के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org