________________
कर्मचिकित्साधिकारः।
(५८१).
. कुर्याद्वातरुजं क्षयश्वसनसत्कासाद्यहिक्कादिकान् । ....
पाण्डून्मादशिरोभितापमचिरान्मृत्यु समापादयेत् ॥ ५९॥ भावार्थ-दोषों से दूषितरक्त को भी अत्यधिकप्रमाण में नहीं निकालना चाहिये । क्यों कि यदि शिरा द्वारा अत्यधिक रक्त निकाल दिया जाय तो वात व्याधि, क्षय, श्वास, खांसी, हिचकी, पांडुरोग, उन्माद ( पागलपना) शिर में संताप आदि रोग उत्पन्न होते हैं एवं उस से शीघ्र मरण भी हो जाता है । शरीरस्थ शेष दूषित रक्त को संशमन औषधियों द्वारा शमन करना चाहिये ॥ ५९॥
___ रक्तकी अतिप्रवृत्ति होनेपर उपाय: रक्तेऽतिप्रसृतक्षणे ह्युपशमं कृत्वा तु गव्यं तदा । क्षीरं तच्छृतशीतलं प्रतिदिनं तत्पाययेदातुरम् ॥
ज्ञात्वोपद्रवकानपि प्रशमयन्नल्पं हि तं शीतल- । ...... द्रव्यैस्सिद्धमिहोष्णशीतशमनं संदीपनं भोजयेत् ॥ ६ ॥
। भावार्थ--रक्त का अधिक स्राब होने पर शीघ्र ही उपशमनावीध ( रक्तको रोक ) करके उस रोगीको, उस समय व प्रतिदिन, गरम करके ठंडे किये हुये. गाय के दूध को पिलाना चाहिये । यदि कोई उपद्रव [ पूर्वोक्त रोगसे कोई रोग ] उपस्थित हों तो, उसका निश्चय कर, उपशमन विधान से शमन करते हुए, उसे अल्प शीतल द्रव्यों से सिद्ध, उष्ण व शीत को शमन करनेवाले, और अग्निदीपक, आहार को खिलाना चाहिये ॥ ६० ॥
शुद्धरक्तका लक्षण व अशुद्धरक्त के निकालने का फल.
रक्तं जीव इति प्रसन्नमुदितं देहस्य मूलं सदा-। धारं सोज्वलवणेपुष्टिजननं शिष्टो भिषग्रक्षयेत् ।। दृष्टं सत्क्रमोदिनात्वपहृतं कुर्यात्प्रशांति रुजा-।
मारोग्यं लघुतां तनोश्व मनसः सौम्यं दृढात्मंद्रियम् ॥ ६१ ॥ भावार्थ:---- शुद्धरक्त शरीर का जीव ही है ऐसा तज्ञ ऋषियोंने कहा है। वह शरीरस्थिती का भूल है । उसका सदा आधारभूत है । एवं उज्वलवर्ण व पुष्टिकारक हैं। सजन वैद्य, ऐसे रक्त की हमेशा रक्षा करें। शिराव्यध आदि से, रक्त निकालने के विधान को जाननेवाला विज्ञ वैद्य द्वारा, दूषित रक्त ठीक तरह से निकाला जाय तो रोग की शांति होती है । शरीर में आरोग्य, लघुता [ हलकापन ] उत्पन्न होती है । मन में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org