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________________ (५८०) कल्याणकारके [ Operation Room ] ठण्डा व गरम पानी, अग्नि आदि सामग्री व प्रेमस्नेहसहित मृदुस्वभावी परिचारकों को सब एकत्रित कर लेना चाहिए । एवं सर्व सामग्री पूर्णरूपेण एकत्रित होने पर, रोगी को योग्य भोजन करा लेना चाहिए ॥ ५६ ॥ ___ अर्शविदारण. तत्राभुक्तवतां मुखामयगणैर्मूढोरुगर्भोदरेऽ-। - इमर्यामप्यतियत्नतो भिषगिह प्रख्यातशस्त्रक्रियां ॥ कुर्यादाशु तथाश्मरीमिहगुदद्वारादहिर्वापतः । छित्वार्श विधियांत्रितस्य शबरैः संहारयेद्वारिभिः ॥ ५७ ।।. . . भावार्थ-मुखरोग, मूढगर्भ, उदररोग व अश्मरी रोगसे पीडित रोगीपर शस्त्रकर्म करना हो तो उसे भोजन खिलाये विना ही बहुत यत्न के साथ करना चाहिये । अश्मरीपर शस्त्रक्रिया जल्दी करें । अर्शरोग में रोगी को विधिप्रकार यंत्रित कर के गुदद्वार के बाहर बायें तरफ शस्त्र से विदारण कर अर्श का नाश करें । एवं उसपर जलका सेचन करें ॥५७॥ शिराव्यधविधि. स्निग्धस्विन्नमिहातुरं सुविहितं योग्यक्रियायंत्रितम् । ज्ञात्वा तस्य सिरां तदा तदुचितं शस्त्रं गृहीत्वा स्फुटम् ।। विध्वामृपरिमोक्षयेदतितरां धारानिपातक्रमात । अल्पं यत्रमपोह्य बंधनबलात्संस्तंभयेच्छोणितम् ॥ ५८ ॥ भावार्थ-पहिले शिराव्यध से रक्त निकालने योग्य रे.गी को, अच्छी तरह स्नेहन, स्वेदन कराकर, योग्यरीति से यंत्रित कर [ बांधकर ] उस की व्यधन योग्य शिरा का ज्ञान कर, अर्थात् शिरा को अच्छी तरह देख कर व हाथ से पकड कर, पश्चात् उचित शस्त्र को लेकर स्फुट रूप से व्यधन करके दुष्टरक्त को अच्छी तरह निकालना चाहिये । अच्छीतरह ज्यधन होने से, रक्त धारापूर्वक बहता है । रक्त निकलते २ जब शरीर में दुष्टरक्त थोडा अवशेष रह जाय तो यंत्रणको हटाकर, शिरा को बांच कर, रक्त को रोक देवें ॥ ५८॥ अधिक रक्तस्रावसे हानि. दोषैर्दुष्टमपीह शोणितमलं नैवातिसंशोधये- । च्छेषं संशमनैः जयेदतितरां रक्तं सिरानिर्गतम् ॥ १ वाप यत् इति पाठांतरं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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