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________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५७९) शल्याहरणविधि. आहार्येषु विचार्य यंत्रितनरस्याहारयेच्छल्पमा- । लोक्यं कंकमुखादिभिस्त्वविदितं शल्यं समाज्ञापय ॥ हस्त्यश्वोष्ट्ररथादिवाहनगणानारोप्य संवाहये-। च्छीघ्रं यत्र रुजा भवेदतितरां तत्रैव शल्यं हरेत् ॥ ५४॥ भावार्थ-आहरण योग्य अवस्था में, मनुष्य को यंत्रित करते हुए देख कर, कंकमुखादि शस्त्रों से शल्य आदि का आहरण करना चाहिये । अविदित शल्य को ( शज्य किस जगह है यह मालूम न हो ) इस प्रकार जानना चाहिये । उस मनुष्य को हाथी, घोडा, ऊंठ, रथ आदि, वाहनों पर बैठाल कर शीघ्र सवारी कराना चाहिये। चलते समय जहां अत्यंत पीडा हो, वहीं पर शल्य है ऐसा समझना चाहिये । बादमें उसे निकालना चाहिये ॥ ५४ ॥ सीवन, संधान, उत्पीडन, रोपण. मूची वा सुविचार्य सीवनविधौ ऋज्वी सवको तया । सीवेदशिरः प्रतीतजठरे संभूय भूरित्रणे।। संधानौषधसाधितख़्तवरैस्संलिप्य सन्धाय सं- । पीड्योत्पीडनभेषजैरपि बहिः संरोपणैः रोपयेत् ॥ ५५ ॥ भावार्थ-सीवनकर्म उपस्थित होने पर सीधी वा टेढी सुई से सीना चाहिये । ऊरुशिर व जठर में बहुत व्रण हो जाने पर, संधानकारक ( जोडनेवाले ) औषधियों से, साधित श्रेष्टघृत से लेपन कर, संधान ( जोडना) कर के, एवं पीडन औषधियों से पीटन कर के और रोपण औषधियों से रोपण [ भरना ] करना चाहिये ॥ ५५॥ शस्त्रकर्मविधि. छद्यादिष्वपि चाष्टकर्मसु यदा यत्कर्मकर्तुर्भिपक् । वाछन् भेषजयंत्रशस्त्रगृहशीतोष्णोदकाग्न्यदिकान् ।। स्निग्धान्सत्परिचारकानपि तदा संयोज्य संपूर्णतां । ज्ञात्वा योग्यमपीह भोजनमपि प्राग्भोजयेदातुरम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:- छेद्य भेद्य आदि अष्ट प्रकार के शस्त्रकर्मों में कोई भी कर्म करने के लिए जब वैद्य को मौका आवे सबसे पहिले उस के योग्य औषधि, शस्त्र, यंत्र, गृह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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