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कल्याणकारके
__ अयोग्यजलायुकालक्षण. याः स्थूलाः शिशवः कृशाः क्षतहताः क्लिष्ठा कनिष्ठात्मिका। याश्वाल्पाशनतत्पराः परवशा याश्चातिनिद्रालसाः। याश्वाक्षेत्रसमुद्भवा विषयुता याश्चातिग्राहिका-- ।
स्तास्सर्वाश्च जलायुका न च भिषक संपोषयेत्पषिणः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-- जो जटूका अत्यंत कृश हैं, अत्यंत स्थूल है, बिलकुल बाल हैं, आघात से युक्त हैं, क्लिष्ट है, नीच जान्युत्पन्न है, अत्यंत कम आहार लेती हैं, परवश हैं, अत्यंत निद्रा व आलस्य से युक्त हैं, जो नीचक्षेत्रा में उत्पन्न है, विषयुक्त हैं, जिन को पकड़ने में अत्यंत कष्ट होता है, ऐसे लक्षणों से युक्त जट्कायोंको वैद्य लाकर पालन पोषण न करें अर्थात् जलूकाप्रयोग के लिये ये अयोग्य हैं ॥ ५१ ॥
शस्त्रकर्मवर्णन. इत्येवं ह्यनुशनशास्त्रमधिकं सम्यग्विनिर्देशतः । शस्त्राणामपि शास्त्रसंग्रहमतो वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥ शस्त्राण्यत्र विचित्रचित्रितगुणान्यस्त्रायसां शास्त्रक्ति ।
कर्मज्ञः कथितोरुकर्मकुशलैः कर्मारकैः कारयेत् ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अभी तक अनुशस्त्र के शास्त्र को कथन कर अब शस्त्रों के शास्त्र को संक्षेप से कहेंगे । शस्त्रों में विचित्रा अनेक प्रकार के गुण होते हैं । उन शस्त्र व लोह के शास्त्रज्ञ व शस्त्रकर्मज्ञ वैध को उचित है कि शस्त्रों को बनाने में कुशल कारीगरों से, शस्त्रकमोचित शस्त्रों को निर्माण करावें ॥ ५२ ॥
अष्टविधशस्त्रकर्मोंमें आनेवाले शस्त्रविभाग. छा स्यादतिवृद्धिपत्रमुदितं लेख्यं च संयोजयेत् । भेद्यं चोत्पलपत्रमत्र विदितं वेध्यो कुठार्यस्थिषु ।। मांस त्रीहिमुखेन वेधनमतो विस्रावणे पत्रिका- ।
शस्त्रं शस्तमथैषणी च सततं शल्यैषणी भाषितम् ॥ ५३ ।। . भावार्थ-छेदन व लेखनक्रिया में वृद्धिपत्र नाम का शस्त्र, भेदनकर्म में
उत्पलपत्र शस्त्र, हड्डी में वेधनार्थ कुठारिकाशस्त्र, मांस में वेधन करने के लिये हि. मुखनामक शस्त्र, विस्रावणकर्म में पत्रिकाशस्त्र एवं शल्य को ढूंढने [ एपणीकर्म 1 में एषणीशन का उपयोग प्रशस्त कहा है ॥ ५३ ॥
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