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________________ कर्मचिकित्साधिकारः । ( ५८३) रक्तस्रावण नहीं कराना चाहिये। जिसने द्रवतर पदार्थोको भोजन कर लिया हो, एवं अत्यंत शीत व थोडा भोजन किया हो, साथ हीठण्डे जल को पीया हो, ऐसे मनुष्य को जानकर रक्तस्रावण कराना चाहिये, अर्थात् शिराव्यध करना चाहिये ॥ ६४ ॥ शिराव्यध के अयोग्य व्याक्त. वास्तऽमृक्षपोक्षेः श्वसनकसनशोषज्वराधश्रमार्ताः । क्षीणाः रूक्षाः क्षतांगाः स्थविरशिशुक्षयव्याकुलाः शुद्धदेहाः ॥ स्त्रीव्यापारांपवासैः क्षपिततकुलताक्षेपकैः पक्षपातः । गर्भिण्यः क्षीणरेतो गरयुतमनुजा अत्यय सावयेत्तान् ॥ ६५ ॥ भावार्थ:-- जो मनुष्य श्वास, कास, शोष, ज्वर, और मार्गश्रम से युक्त हैं एवं शरीरसे क्षीण हैं, रूक्ष हैं, जखम से युक्त अंगवाले है, अत्यंत बूढे हैं, बालक हैं, व क्षय रोग से पीडित हैं, वमन विरेचनदि से जिनके शरीर को शुद्ध किया गया है, अति मैथुन व उपवास से जिन का शरीर क्षीण वा खराब हो गया है, आक्षेपक व पक्षाघात व्याधिस पीडित है, गर्भिणी हैं, जिनकं शुक्रधातु क्षीण होगया है जो कृत्रिम विषसे पीडित हैं ऐसे मनुष्योंको शिराव्यध कर के रक्त नहीं निकालना चाहिये । अर्थात् उपरोक्त मनुष्य शिराव्यध के अयोग्य है। उपरोक्त शिराव्यधन के आयोग्य मनुष्य भी यदि शिराव्यध से साध्य होनेवाले कोई प्राणनाशक व्याधि से पीडित हों, तो उन का उस अवस्थामें रक्त निकालना चाहिये ॥ ६५ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरती । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ६६ ।। भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुख से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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