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________________ (१८) कल्याणकारके साम्य विचार सुसौम्यभावः खलु साम्यमुच्यते । रुचिश्च पाको बलमेव लक्षणम् । हितो मिताहारविधिश्च साधनं । बलं चतुर्वर्गसमाप्तिरिष्यते ॥ ५॥ भावार्थ:-परिणाम में शांति रहना उसे साम्य कहते हैं । आहार में रुचि रहना, पाचन होना, और शक्ति बना रहना, साम्य का लक्षण हैं अर्थात् साम्यका द्योतक है। हित, मित आहार सेवन करना, रुचि आदि के बनाये रखने के लिये साधन है। बल से धर्म अर्थ काम मोक्षरूपी चतुर्वौकी पूर्ति होती है ॥ ५॥ न चेदृशस्तादृश इत्यनेकशो । वचाविचारेण किमर्थवेदिनाम् । वधुर्बलाकारविशेषशालिनाम् । निरीक्ष्य साम्यं प्रवदंति तद्विदः ॥६॥ भावार्थः--वह ( साम्य )अमुक प्रकार से रहता है, अमुक तरह से नहीं इत्यादि वचनविचारसे तत्वज्ञानियों को क्या प्रयोजन ? शरीरका बल, आकार आदिसे सुशोभित मनुष्यों को देखकर तज्ज्ञ लोग साम्य का निश्चय करते हैं ॥ ६ ॥ प्रकारांतरसे स्वस्लथक्षण किमुच्यते स्वस्थविचारलक्षणं । यदा गदैर्मुक्ततनुर्भवेत्पुमान् । तदैव स स्वस्थ इति प्रकीर्तितस्सुशास्त्रमार्गान च किंचिदन्यथा ॥ ७ ॥ भावार्थ:-स्वरथशशिरका लक्षण क्या है ? जब मनुष्य रोगोंसे रहित शरीरको धारण करें उसे ही स्वस्थ कहते हैं। यह आयुर्वेदशास्त्रोंकी आज्ञासे कहा गया है। अन्यथा नहीं ॥ ७ ॥ अवस्था विचार वयश्चतुर्धा प्रविकल्पतं जिनैः । शिशुर्युवामध्यमवृद्ध इत्यतः। दशभकारैर्दशकैः समन्वितैः । शतायुरेवं पुरुषः कलौ युगे ॥ ८॥ भावार्थ:-मनुष्यकी दशा (आयु) चार प्रकारसे विभक्त है। बालक दशा, यौवनदशा, मध्यम दशा व वृद्ध दशा इस प्रकार चार भेद हैं । एवं सौ वर्षकी पूर्ण आयुमें वह दस दस वर्षमें एक २ अवस्थाको पलटते हुए दस दशात्रोंको पलटता है । इस प्रकार कलियुगमें मनुष्य प्रायः सौ वर्षकी आयुवाले होते हैं ॥ ८ ॥ अवस्थाओंके कार्य दशेति बाल्यं परिवृद्धिरुद्धतं । युवत्वमन्यच्च सहैवमेव यत् । त्वर्गस्थिशुक्रामलविक्रमाधिकः। प्रधानबुद्धीदिय सन्निवर्तनत् ॥९॥ १-त्वगक्षि इति पाठांतरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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