________________
गर्भोत्पत्तिलक्षणम्
( १९ )
भावार्थ:- - पहिली दशा बालक है, उसीकी दशा वृद्ध होकर जवानी दशा होती है, इसी प्रकार और भी दशायें होती है जिनमें त्वचा, हड्डी, वीर्य, बल, बुद्धि व इंद्रिय आदि इन सभी बातों में परिवर्द्धन होता है जिनका अलग २ दशामें भिन्न २ रूपसे अनुभव होता है ॥ ९॥
अवस्थांतर में भोजनविचार ।
अथत्ति कचित्पय एव बालकः । पयोन्नमन्यस्त्वपरः सुभोजनम् । विधैवमाहारविधिः शिशौ जने । परेषु संभोजनमेव शोभनम् ॥ १० ॥ भावार्थ:- माता के गर्भ से बाहर आनेके बाद बालक सर्व प्रथम केवल माताके दूध पीकर जीता है । आगे वही कुछ मास वृद्धिंगत होनेपर माका दूध और अन्न दोनों को खाता है । इस अवस्थाको भी उल्लंघनकर आगे केवल भोजन करता है । इस प्रकार बालकों में तीन ही प्रकार के आहारक्रम है । बाकीकी दशाओ में ( स्वस्थाव1 स्था में ) भोजन करना ही उचित है ॥ १० ॥
I
जठराग्निका विचार ।
तथा वयस्थष्वथवोत्तरेष्वपि । क्रियां मुकुर्याद्भिषगुत्तरोत्तरम् । विचार्य सम्यक्पुरुषोदरानलं । समत्ववैषम्यमपीह शास्त्रतः ॥ ११ ॥ भावार्थ : - यौवन, मध्यम व वृद्ध दशाको प्राप्त मनुष्यों के भी जठराग्नि सम है ? विषम है ? या मंद है ? इत्यादि बातोंको शास्त्रीयक्रम से अच्छीतरह विचार कर, वैद्य, तद्योग्य चिकित्सा करें ॥ ११ ॥
विकृतजठराग्निके भेद ।
अथाग्निरत्रापि निरुच्यते त्रिधा । विकारदोषैर्विषमोऽतितीक्ष्णता । गुणोप मंदानिलपित्तसत्कः । क्रमेण तेषामिह वक्ष्यते क्रिया ।। १२ ।। भावार्थ:: -वात आदि दोषों के प्रकोप से, विषैमाग्नि, तीक्ष्णाग्नि, मंदाग्नि इस प्रकार विकृत जठराग्नि के तीन भेद शास्त्रो में वर्णित है । अर्थात् वातप्रकोप से विषमाग्नि, पित्तप्रकोप से तक्ष्णिाग्नि, कफप्रकोप से मंदाग्नि होती है, अब इन विकृताग्नियों की चिकित्सा यथाक्रम से कहेंगे ॥ १२ ॥
१. विषमाग्नि योग्य प्रमाण से, योग्य आहार खाने पर कभी ठीक तरह से पच भी जाता है कभी नहीं उसे विषमाग्नि कहते हैं,
२ तीक्ष्णाग्नि- उपयुक्त मात्रा से या अत्यधिक मात्रा से सेवन किये गये आहार को भी जो भग्न ठीक तरह से पचा देती हैं उसे तीक्ष्णाग्नि कहते हैं ।
३ मंदाग्नि- जो अल्पप्रमाण में खाये गये आहार को भी पचा नहीं सकती उसे मंदान कहते हैं. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org