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कल्याणकारके विषमाग्नि आदि की चिकित्सा मुबस्तिकारथ सद्विरेचनैः तथानुरूपैर्वमनैः सनत्यकैः । क्रमान्मरुत्पित्तकफपीडिता-निहोदराग्नीनपि साधयेद्भिषक् ॥१३॥
भावार्थ:--वात, पित्त, व क के द्वारा क्रमसे पीडित उदराग्निको वैद्य बस्तिकार्य, विरेचन, योग्य वमन, व नस्योंसे यथाक्रम चिकित्सा करें ॥१३॥
- समाग्नि के रक्षणोपाय । समाग्निमेवं परिरक्षयेत्सदा । यथतुकाहारविधानयोगतः । त्रिकालयोग्यैरिह बस्तिभिस्सदा विरेचनैः सद्वमनैश्च बुद्धिमान् ॥१४॥
भावार्थ:---त्रिकालयोग्य बाति, विरेचन व वमनोंसे एवं ऋतुके अनुसार भोजन प्रयोगसे बुद्धिमान् वैद्य समाग्निकी सदा रक्षा करें ॥१४॥
बलपरीक्षा कृशोऽपि कश्विद्धलवान्भवेत्पुमान् । सदुर्बलः स्थूलतरोऽपि विद्यते बलं विचार्य बहुधा नृणां भवे-दतीव भारैरपि धावनादिभिः ॥१५॥
भावार्थ.-काई २ मनुष्य कृश दिखनेपर भी बलवान् रहते हैं, कोई मोटे दिखनेपर भी दुर्बल रहते हैं, इसलिये मनुष्योंके शरीरको न देखकर उनको दौडाकर या कोई वजन उठवाकर उनके बलको विचार ( परीक्षा ) करना चाहिये ॥ १५ ॥
बलकी प्रधानता बलं प्रधानं खलु सर्वकर्मणामतो विचार्य भिषजा विजानता। नरेषु सम्यक् बलवत्तरेष्विह क्रिया सुकार्या सुखासिद्धिमिच्छता ॥ १६ ॥
भावार्थ:-सर्व कार्योंके लिये बल ही मुख्य है । इसलिये मतिमान् वैद्य उस बलको पहिले विचार करें । बलवान् मनुष्योमें किये हुए प्रयोग मे ही वह अपनी सफलता की भी आशा रखें अर्थात् चिकित्सा में सफलता प्राप्त करना हो तो बलवान् मनुष्यों की चिकित्सा करें ॥ १६॥
बलोत्पत्तिके अंतरंग कारण स्वकर्मणामोपशमात् क्षयादपि । क्षयोपशम्यादपि नित्यमुत्तमम् । सुसत्वमुद्यत्पुरुषस्य जायते । परीषहान्यो सहते सुसत्ववान् ॥१७॥
१ योग्य प्रमाण से सेवन किये गये आहार को जो ठीक तरहसे पचाती है उसे समामि कहते हैं।
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