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( ४१८ )
कल्याणकारके
गोलाकार के रूप में फिरता है तो रोगी मनुष्य, अत्यंत व्यथित हो कर, पीडा के साथ बहुत देर से थोडे २ मूत्र को विसर्जन करता है । इसे वातकुंडलिका रोग कहते हैं । यह भयंकर रोग वातोद्रेक से उत्पन्न होता है ॥ ३९ ॥ ४० ॥
मूत्राष्ठीलिका लक्षण.
कुपितवातविघातविशोषितः पृथुरिहोपलवद्यनतां गतः । भवति मूत्रकृताश्ममहामयो । मलजलानिलरोधकृदुद्धतः ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-- वातके कुपित होनेसे वह मूत्र जब सूख जाता है वह बढ़कर पत्थर के समान घट्ट हो जाता है, जो कि मल मूत्र व वातको रोकता है । वह मूत्रसंबंधी अश्म रोग कहलाता है । इसे मूत्राष्ठीलिका के नाम से भी कहते हैं । यह मूत्र व वात विकारसे उत्पन्न होता है व अत्यंत भयंकर है ॥ ४१ ॥
वातबस्ति लक्षण.
जलगतैरिह वेगविघाततः प्रतिवृशीत्यथ बस्तिमुखं मत् । प्रचुरमूत्रविसंगतयातिरुक्पवनबस्तिरिति प्रतिपाद्यते ॥ ४२ ॥
भावार्थ:: -- मूत्र के वेगको रोकने से बत्तिगत वायु प्रकुपित होकर बत्ति मुखको एकदम रोक देता है । इससे मूत्र रुक जाता है । बस्ति व कुक्षि में पीडा होती है, उसे वातरित रोग कहते हैं ॥ ४२ ॥
मूत्रातीत लक्षण.
अवधृतं स्वजलं मनुजो यदा । गमयितुं यदि वांछति चेत्पुनः । व्रजति नैव तदाल्पतरं च वा । तदिह मूत्रमतीतमुदाहृतम् ॥ ४३ ॥
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भावार्थः -- जो मनुष्य, मूत्र के बैग को रोक कर फिर उसे त्यागना चाहता है तो वह मूत्र उतरता ही नहीं, अथवा प्रवाहण करने पर पीडा के साथ थोडा २ उतरें इसे मूत्रातीत रोग कहते हैं ॥ ४३ ॥
मूत्रजठर लक्षण.
उदकवेगविद्यातत एव तत् । प्रकुरुते मरुदुत्परिवर्तते । उदरपूरणमुद्धतवेदनं । प्रकटसूत्रकृतं जठरं सदा ॥ ४४ ॥
भावार्थ:- उस मूत्रके वेग को रोकनसे, कुपित [ अपान ] बात जब ऊर्ध्वं गामी होकर पेट में भर जाता है अर्थात् पेटको फुलाता है [ नाभीसे नीचे अफरा ] और उस समय पेढ में अत्यंत वेदना को उत्पन्न करता है । उसे मूत्रजठर रोग कहा है ॥४४॥
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