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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(४१९)
मुत्रोसंग लक्षण. अपि मनोहरमेहनमध्यमे । प्रवरबस्तिमुखेति विषज्यते । सृजत एव बलात्पतिबाधतः । सरुज मूत्रमतोप्यपसंगरुक् ॥ ४५ ॥
भावार्थ:--मनोहर शिश्नेद्रिय के मध्यभाग वा बस्ति [ मूत्राशय] के मुख में, प्रवृत्त हुआ मूत्र रुक जाता है, बलात्कार से त्यागने की कोशिश करने पर, प्रतिबंधक कारण मौजूद होनेसे, पीडा के साथ धीरे २ थोडा २ निकलता है। कभी रक्त भी साथ आता है, इसे मूत्रोंत्सग रोग कहते हैं ॥ ४५ ॥
मूत्रक्षयलक्षण. द्रवविहीनविरूक्षशरीरिणः । प्रकटबस्तिगतानिलपित्तको । क्षपयतोऽस्य जलं बलतः स्वयं । भवति मूत्रगतक्षयनामकः ॥ ४६॥
भावार्थ:---जिन के शरीर में द्रवभाग अत्यंत कम होकर रूक्षांश अधिक होगया हो उन की बस्ति में पित्त व वात प्रविष्ट होकर मूत्र को जबर्दस्ती नाश करते हैं। वह मूत्रक्षयनामक रोग है ॥ ४६॥
मूत्राश्मरी लक्षण. अनिलपित्तवशादतिशोषितं । कठिनवृत्तमिहांबुनिवासितम् । मुखगतं निरुणद्धि जलं शिलोपममतोऽस्य च नाम तदेव वा ॥ १७॥
भावार्थ:-वात व पित्त के प्रकोप से, मूत्र सूखकर कठिन व गोल, अश्मरी के समान ग्रंथि बास्त के मुख में उत्पन्न होता है जिस से मूत्र रुक जाता है । यह अश्मरी तुल्य होने से, इस का नाम भी मूत्राश्मरी है ॥ ४७ ॥
मूत्रशुक्र लक्षण. अभिमुखस्थितमूत्रनिपीडितः । प्रकुरुतेऽज्ञतयाधिकमैथुनम् । अपि पुरः पुरतस्सह रेतसा वहति मूत्रमिदं च तदाख्यया ॥ ४८ ॥
भावार्थ:--जब मूत्र बाहर आनेके लिये उपस्थित हो और उसी समय कोई अज्ञानसे मैथुन सेवन कर लेवें तो मूत्रा विसर्जन के पहिले [ अथवा पश्चात् ] वीर्यपात [ जो भरम मिला हुआ जल के समान ] होता है इसे मूत्रशुक्ररोग कहते हैं ॥ ४८ ॥
.१ इसे ग्रंथांतरो में मूत्रग्रंथि कहते हैं ।
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