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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः ।
(६२३)
भाजन विधि... . आहारक्रममवलोक्य रोगमत्ता । क्षीरणाप्यधिकखलैस्सुयोगवगैः ॥ पादोनं विदितयथोचितानतस्तं । संभोज्यातुरमनुवासयेद्यथावत् ॥१२८॥
भावार्थ-रोगी के आहारक्रम को देख कर, दूध, खल व उसी प्रकार के योग्य खाद्य पदार्थोसे, जितना वह हमेशा भोजन करता है उससे, [ उचित मात्रा से, ] चौथाई हिस्सा कम, भोजन कराकर शास्त्रोक्तविधिसे अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ १२८ ॥
अशुद्धशरीर को अनुवासन का निषेध. देयं स्यान्न तदनुवासनं नरस्या-। शुद्धस्य प्रबलमलैर्निरुद्धमार्गे- । ण व्याप्नोत्यधिगततेलवीर्यमूर्ध्व । तस्मात्तत्प्रथमतरं विशोधयेत्तम् ॥१२९।।
भावार्थ-अशुद्ध शरीरवाले मनुष्यको अनुवासन बस्तिका प्रयोग नहीं करना चाहिये । यदि उसे प्रयोग कर दे तो प्रवल मलोसे मार्ग अवरुद्ध ( रुकजाना ) होजानेके कारण, प्रयुक्त तैलका वीर्य ऊपर फैल जाता है । इसलिये अनुवासनबस्ति देनेके पहिले उसके शरीरको अवश्य शुद्ध कर लेना चाहिये ।।१२९॥
अनुवासनकी संख्या. रूक्षं तं प्रबलमहोद्धतीरुदोषं । द्विस्त्रिाप्यधिकमथानुवास्य मय॑म् ॥ स्निग्धांगः स्वयमपि चिंत्य दोषमार्गात ।
पश्चात्तं तदनु निरूहयेद्यथावत् ॥ १३० ॥ भावार्थ:-जिसका शरीर रूक्ष हो, शरीरमें दोष प्रबलतासे कुपित हो रहे हों ऐसे मनुष्यको, उसके दोषोंपर ध्यान देते हुए दो तीन अथवा इससे अधिक अनुवासन बस्ति देना चाहिये । जब शरीर ( अनुव सनसे ) स्निग्ध हो जावे तो, अपने आप बलाबल को विचार कर पश्चात् शास्त्रोक्त विधिके अनुसार निरूहबातिका प्रयोग करना चाहिये ॥ १३० ॥
रात्रिंदिन वस्ति का प्रयोगः तं चाति प्रबलमलैरशुद्धदेहं । ज्ञात्वेह प्रकटमरुत्पपीडितांगम् ॥ रात्रावप्यहनि सदानुवासयेद्य-- । दोषाणां प्रशमनमेव सर्वथेष्टम् ।। १३१॥
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