________________
वातरोगाधिकारः।
(१४५)
अनुवास के पश्चाद्विधेय विधि । स्वदक्षिणकरं निपीड्य शयने सुखं संविशेत् । स्वमेवमिति तं वदेन्मलविनिर्गमाकांक्षया ।। ततोऽनिलपुरीषमिश्रघृततैलयोर्वागमात् ।
प्रशस्तमनुवासनं प्रतिवदन्ति तद्वेदिनः ॥ ५९॥ भावार्थ:----दाहिने हाथको दबाकर अच्छीतरह सुखपूर्वक सोनेके लिये उसे . कहना चाहिये । जिससे मल शीघ्र नहीं निकल सके । उसके बाद वायु व मळसे मिश्रित (पहिले प्रयोग किया हुआ) तेल वा धी निकल जावें तो बस्तिकर्म को जाननेवाले, उत्सम अनुवासन बस्ति हुई ऐसा कहते हैं ॥ ५९ ॥ अनुवासनका शीघ्र विनिर्गमनकारण व उसाका उपाय ।
पुरीपबहुलान्मरुत्पबलतातिरूक्षादपि । स्वयं धृतसुतलयोरतिकनिष्ठमात्रान्वितात् ॥ स च प्रतिनिवर्तते घृतमथापि तैलं पुन-।
स्ततश्च शतपुष्पसैंधवयुतं नियोज्यं सदा ।। ६० ॥ भावार्थ:---कोष्ठ में मलका संचय, वातका प्रकोप, और रूक्षत्व (सूखापना) के अधिक होने से व प्रयुक्त घृत व तैल की मात्रा अत्यल्प होनेसे, प्रयुक्त अनुवासनबस्ति शीघ्र ही लोट आवे तो, घृत या तेलके साथ सोंफ, सेंधानमक को मिलाकर फिर बस्तिप्रयोग करना चाहिये ॥ ६ ॥
अनुवासनबस्ति की संख्या । तृतीयदिवसात्पुनः पुनरपीह संयोजये-। यथोक्तमनुवासनं त्रिकचतुष्कषष्ठाष्टमान् ॥ शरीरबलदोषविद्विविधवेदनानिग्रहं ।
निरूहमपि योजयेत्तदनुवासमध्ये उनः ॥ ६ ॥ __अर्थः-पुनः तीसरे दिनमें गेकि शरीरबल, दोष-प्रकोप, वेदना की उप शांति आदि पर ध्यान देते हुए उसे तीन, चार, छह, आठ तक अनुवाप्सन बस्ति देनी चाहिये । उम अनुवासन बस्तिके, बीच में आवश्यकता तो निरूहबस्तिका प्रयोग भी करना चाहिये ।। ६१ ॥
१ अनुवासनबस्ति प्रयोग करते ही बाहर आ तो गुणकारी नहीं होती है । इसलिये, पेटके अंद बोडी देर ठहरना अत्यावश्यक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org