SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 718
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भेषजकपद्रव चिकित्साधिकारः । ( ६२५ ) 1 थप्पड़े मारे । शय्या ( पलंग, बेंच आदि ) को तीन वार ऊपर की ओर उठावें । स्नेह के प्रसरण व चलन के लिये, तुम सौ क्षण तक दक्षिणपार्श्व के बल से रहो ऐसा रोगी से कहना चाहिये । इस प्रकार जिस को अच्छीतरह से अनुवासन बस्तिका प्रयोग किया गया है उस से कहना चाहिये कि, सुखपूर्वक मल की प्रवृत्ति [ बाहर आना ] के लिये तुम पग के बल से, जैसा मल बाहर आने में सुभीता हो बैठो। अर्थात् उसे उकरू बैठालना चाहिये ।। १३२ ।। १३३ ।। १३४ ॥ १३५ ॥ बस्तिके गुण. एवं दत्तः सुबस्तिः प्रथमतरमिह स्नेहयेद्वेक्षणे त- । दरितः सम्यग्वितीयः सकलतनुगतं वातमुध्दूय तिष्ठेत् ॥ तेजोवर्ण वलं चावहति विधियुतं सत्तृतीयचतुर्थः । साक्षात्सम्यग्रस तं रुधिरमिह महापंचमोऽयं प्रयुक्तः ॥ १३६ ॥ षष्टस्तु स्नेहवस्तिपिंशितामिहरसान् स्नेहयेत्सप्तमोऽसौ । साक्षादित्यष्टमोऽयं नवम इह महानस्थिमज्जानमुद्य - ॥ च्छुक्रोद्भूतान्त्रिकारान् शमयति दशमो ह्येवमेव प्रकरा - 1 दद्याद्दत्तं निरूहं तदनु नवदशाष्टौ तथा स्नेहवस्तिः ॥ १३७ ॥ भावार्थ:- विधिप्रकार प्रयुक्त प्रथमवस्ति वंक्षण ( राङ ) को स्निग्ध करती हैं । द्वितीयबस्ति सर्वशरीरगत वातरोग को नाश करती है । तीसरी बस्ति शरीर में तेज, वर्ण व बल को उत्पन्न करती | चौथी बस्ति रस को स्निग्ध करती है। पांचवी, रक्त को स्निग्ध करती है। छठवी बस्ति मांस को स्निग्ध करती है । सातवीं बस्ति रसों [ मेद ] को स्निग्ध करती है। आठवीं व नवमीं बस्ति, अस्थि [ हड्डि ] व मज्जा में स्नेहन करती है । दशवीं बस्ति, शुक्र में उत्पन्न विकारों को प्रकार से, निरूह बस्तिप्रयुक्त मनुष्य को, नौ अथवा अठारह प्रयोग कर देना चाहिये || १३६ ॥ १३७ ॥ शमन करती है । इसी अनुवासन बस्तियों का तीन सौ चोबीस वस्ती के गुण. एवं सुस्नेहवस्तित्रिंशतमपि चतुर्विंशतिं चोपयुक्तान् । मर्त्योऽमर्त्यस्वरूपो भवति निजगुणैस्तु द्वितीयोऽद्वितीयः ॥ १ यह इसीलेय किया जाता है कि प्रयुक्त स्नेह शीघ्र बाहर नहीं आने पावे । ७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy