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कल्याणकारके
कामस्साक्षादपूर्वः सकलतनुभृतां हृन्मनीनेत्रहारी।
जीवेदिव्यात्मदेहः प्रबलबलयुतो वत्सराणां सहस्रम् ॥१३८॥ भावार्थ:-इस प्रकार शास्त्रोक्त विधि से तीन सौ चोवीस स्नेहन बस्तियों के प्रयोग करने से वह मनुष्य अपने गुणों से साक्षात् द्वितीय देव के समान बन जाता है । संपूर्ण प्राणियों के हृदय, मन व नेत्र को आकर्षित करनेवाले देह को धारणकर वह साक्षात् अपूर्व कामदेव के समान होता है । इतना ही नहीं वह दिव्य देह, व विशिष्ट बल से युक्त होकर हजारों वर्ष जीयेगा अर्थात् दीर्घायुषी होगा ॥१३८॥
सम्यगनुवासित के लक्षण व स्नेहवस्ति के उपद्रव स्नेह प्रत्येति यश्च प्रबलमरुदुपेतः पुरीषान्वितः सन् । सोऽयं सम्यग्विशेषाद्विधिविहितमहास्नेहबस्तिप्रयुक्तः ॥ स्नेहः स्वल्पः स्वयं हि प्रकटबलमहादोषवगोभिभूतो।
नैवागच्छन्स्थितोऽसौ भवति विविधदोषावहद्दोषभेदात् ।।१३९॥ भावार्थः-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार, सम्यक् प्रकार से स्नेहबस्ति [ अनुवासनबस्ति ] प्रयुक्त होवे तो स्नेह, प्रबलवात व मल से युक्त होकर बाहर आजाता है। ( यदि कोष्ठ में वातादि दोष प्रबल हो ऐसे मनुष्य को ) अल्पशक्ति के स्नेह को अल्पप्रमाण में प्रयोग किया जाय तो वह प्रबलवातादिदोषों से तिरस्कृत ! व्याप्त ) होते हुए, बाहर न आकर अंदर ही ठहर जाता है । इस प्रकार रहा हुआ स्नेह नाना प्रकार के दोषों को उत्पन्न करता है ॥१३९॥
वातादिदोषों से अभिभूत स्नेह के उपद्रव वाते वक्त्रं कषायं भवति विषमरूक्षज्वरो वेदनान्यः। पित्तेनास्य कटुः स्यात्तदपि च बहुपित्तज्वरः पीतभावः ॥ श्लेष्मण्येवं मुखं संभवति मधुरमुत्क्लेदशीतज्वरोऽपि ।
श्लेष्मःछर्दिप्रसेकस्तत इह हितकृदोषभेदानिरूहः॥१४०॥ भावार्थ:-अनुवासन बस्ति के द्वारा प्रयुक्त स्नेह यदि वात से अभिभूत( पराजित )( वायु के अधीन ) होवे तो मुख कषैला होता है। शरीर रूक्ष होता है । विषमज्वर उत्पन्न होता है एवं वातोद्रेक की अन्य वेदनायें भी प्रकट होती हैं । पित्त से अभिभूत होवे तो, मुख कडुआ, पित्तज्वर की उत्पत्ति व शरीर, मलमूत्रादिक पलेि हो जाते हैं। स्नेह, कफ से अभिभूत होने पर मुख मीठा, उत्क्लेद, शीतज्वर, कफ का घमन, व
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