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( १९८)
कल्याणकारके
saxhamakal
भावार्थ:-- उग्र विषोंके भक्षण से जो चौथा वेग उत्पन्न होता है उस में प्राणियों के अंत्रामें गुडगुडाहट शब्द, उदरशूल, हिचकी और शिर अत्यंत भारी हो जाता है ।। ५६ ॥
पंचम व षष्टवेगलक्षण. पर्वभेदकफसंस्रववैवर्ण्य भवेदधिकपचमवेगे । सर्वदोषविषमोप्यातिसारः शूलमोहसहितः खलु षष्टे ॥ ५७ ॥
भावार्थ:-विषके पांचवें वेग में संधियो में भिदने जैसी पीडा होती है, कफ का स्राव [ गिरना ] होता है । शरीर का वर्ण बदल जाता है और सर्व दोषों [ वात पित्त कफों ] का प्रकोप होता है । विष के छटे वेग में बहुत दस्त लगते हैं । शूल होता है व वह मूछित हो जाता है ॥ ५७ ॥
सप्तमवेगलक्षण. स्कंधपृष्टचलनाधिकभंशाश्वासरोध इति सप्तमवेगे। तं निरीक्ष्य विषयेमबिधिज्ञः शीघ्रमेव शमयेद्विषमग्रम् ॥ ५८ ॥
भावार्थः- सातवें वेग में कंधे, पीठ, कमर टूटते हैं और श्वास रुक जाता है। उन सब विषवेगों को जाननेवाला वैद्य, उयरोक्त लक्षणो से विष का निर्णय कर के शीघ्र ही भयंकर विष का शमन करें ॥ ५८ ॥
विपचिकित्सा.
प्रथमद्वितीयवेगचिकित्सा. वामयेत्प्रथमवेगविषांत शीततोयपरिषिक्तशरीरम् । पाययेध्दृतयुतागदमेव शोधयेदुभयतो द्वितये च ।। ५९ ॥
भावार्थ:-विषके प्रथमवेग में विषदूषित रोगी को यमन कराकर शरीर पर ठंडा जल छिडकना अथवा ठंडा पानी पिलाना चाहिये । पश्चास् घृत से युक्त अगद । विषनाशक औषधि पिलावें । द्वितीयवेग में वमन कराकर विरेचन कराना चाहिये ।। ५९ ॥
तृतीयच उर्थवेगचिकित्सा. नस्यमं ननमथागदपानं तत्तृतीयावेषवेगविशेपे । सर्वमुक्तमगदं घृतहीनं योजयेत्कथितवेगचतुर्थे ॥ ६० ॥
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