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विषरोगाधिकारः ।
( ४९७ )
विष शरीर को कृश कर देता है, कोई सुखा देता है, कोई अंत्रवृद्धि या अंडवृद्धि आदिको को पैदा कर देता है । कोई तो अधिक निद्रा करता है । कोई पेटको फुला देता हैं, कोई शुक्रधातु का नाश करता है । यह दूषीविष इसी प्रकार के अनेक प्रकार के भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है ॥ ५१ ॥ ५२ ॥
स्थावरविष के सप्तवेग.
प्रथमवेग लक्षण -
स्थावरोग्रविषवेग इदानीमुच्यते प्रथमवेगविशेषे । स्तब्धकृष्णरसना सभयं मूर्च्छा भवेद्धृदयरुग्भ्रमणं च ॥ भावार्थ::- स्थावर विष के सात वेग होते हैं । अब उन
वेगों के वर्णन
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करेंगे । विष के प्रथमवेगमें मनुष्य की जीभ स्तब्ध [ जकडजाना ] व काली पड जाती है । भय के साथ मूर्च्छा हो जाती है । हृदय में पीडा व चक्कर आता है ।। ५३ ॥
द्वितीयवेगलक्षण.
५३ ॥
वेपथुर्गलरजातिविदाहस्वेदजु भणतृषोदरशूलाः ।
द्वितीयविषवेगकृतास्स्युः सांत्रकूजनमपि प्रबलं च ॥ ५४ ॥
भावार्थ:- विष के द्वितीयवेग में शरीर में कंप, गलपीडा, अतिदाह, पसीना, जंभाई, तृषा, उदरशूल आदि विकार उत्पन्न होते हैं एवं अंत में प्रबल शब्द [ गुडगुडाहट) भी होने लगता है ॥ ५४ ॥
तृतीयवेगलक्षण.
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आमशूलगलतालुविशोषोच्छन पीततिमिराक्षियुगं च ।
से तृतीयविषवेगविशेषात् संभवत्यखिलकंदविषेषु ।। ५५ ।।
भावार्थ:- समस्त कंदज [ स्थावर ] विषोंके तीसरे वेग में आमाशय में अत्यंत 'शूल होता है [ इस वेग में विष आमाशय में पहुंच जाता है ] गला और तालू सूख जाते हैं । आखें सूज जाती है और पीली या काली हो जाती हैं ॥
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५५ ॥
चतुर्थ वेगलक्षण.
सांकूजनमथोदरशूला हिक्कया च शिरसोऽतिगुरुत्वम् । तच्चतुर्थविषवेगविकाराः प्राणिनामतिविषप्रभवास्ते ॥ ५६ ॥
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