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________________ कल्याणकारक मला सूखता है । गले में जलन होती है और अधिक प्यास लगता है । कफज स्वरभेद में, गला कफ से रुक जाता है, स्वर भी कफ से युक्त होकर निकलता है || ५८ ॥ त्रिदोषज, रक्तज स्वरभेद लक्षण. मोक्ताखिलप्रकटदोपकृतत्रिदोप- । लिंगस्वरी भवति वर्जयितव्य एषः ॥ . कृष्णाननोष्णसहितो रुधिरात्मक: स्या- । - तं चाप्यसाध्यसृपयस्वरभेदमाहुः ।। ५९ ॥ भावार्थ:- उपर्युक्त प्रकार के सर्व लक्षण एक साथ प्रकट होजाय तो उसे त्रिदोषज स्वरभेद समझना चाहिए। यह असाध्य होता है । रक्त के प्रकोप से उत्पन्न स्वरभेदमें मुख काला हो जाता है और अधिक गर्मी के साथ स्वर निकलता है । इसे भी ऋषिगण असाध्य कहते हैं ॥५९।। मेदजस्वरभदलक्षण! मेदोभिभूतगलतालुयुतो मनुष्यः । कृच्छाच्छनवदति गद्गदगाढवाक्यं ॥ अव्यक्तवणमतएव यथा प्रयत्ना-। न्मेदःक्षयाद्भवति सुस्वरता नरस्य ॥ ६० ॥ . भावार्थ:--जब मेद दूषित होकर, गल व तालु प्रदेश में प्राप्त होता है तो मेदज स्वरभेद उत्पन्न होता है । इससे युक्त मनुष्य, बहुत कष्टसे धीरे २ गद्गद कंटसे कठिन वचन को बोलता है । वर्ण का भी स्पष्ट उच्चारण नहीं कर सकता है । इसलिये प्रयत्नसे मेदोविकारको दूर करना चाहिये । इससे उसे सुस्वर आता है ॥ ६०॥ स्वरभेदचिकित्सा. सर्वान्स्वरातुरनरानभिवाक्ष्य साक्षात् । स्नेहादिभिः समुचितौषधयोग्ययोगः ।। दोपक्रमादुपचरेदथ वात्र कास-। श्वासप्रशांतिकरभेषजमुख्यगैः ॥ ६१॥ - भावार्थः- सर्वप्रकार के स्वरोपघात से पीडित रोगियों को अच्छी तरह परीक्षा कर स्नेहनादि विधिके द्वारा एवं उस के योग्य औषधियोंके प्रयोगसे अथग वासकासके उपशामक औषधियों से दोषों के क्रमसे चिकित्सा करनी चाहिये ।।१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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