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________________ कल्पधिकारः। वज्रकल्प. बज्राण्यप्यथ वज्रलोहमखिलं वज्रोरुवंधीफलं । प्रोद्यद्वजकपालमप्यतितरं वजाख्यपाषाणकम् ॥ यद्यल्लब्धमतः प्रगृह्य विधिना दग्ध्वा तु भस्त्राग्निना । सम्यक्पाटलवीरवृक्षकृतसद्भस्माम्भसि प्रक्षिपेत् ॥ ३३ ॥ तान्यत्युष्णकुलत्थपकसलिले सप्ताभिषेकान्क्रमात । कृत्वैवं पुनराधिक पसि च प्रक्षिप्य यत्नाबुधः ॥ चूर्णीकृत्य सिताज्यमिश्रममलं ज्ञात्वात्र मात्रां स्वयं । लीद्वाहारनिवासवित्स जयति प्रख्यातरोगामरः ॥ ३४ ॥ भावार्थ-वज्र अनेक प्रकारके होते हैं । वज्र, लोह, वज्रबंध फल, वज्रकपाल, और वज्रपाषाण इस प्रकार के वज्रभेदो में से जो २ प्राप्त हो सकें संग्रह कर, विधिपूर्वक झोंकनी की तेज आग से जलावे । जब वह लाल हो जाये तो उसे पाटल व अर्जुन वृक्ष की लकड़ी के भस्म के पानी में डाले अर्थात् बुझायें। बाद में कुलथी के अत्युष्ण क्वाथसे सात वार धोयें । पुन बहुत यत्नपूर्वक दूध में उसे डालें। बाद में उस चूर्ण को घी व शक्कर के साथ मिलाकर, योग्य मात्रा में चाटे और इस के सेवन काल में पूर्वोक्त प्रकार के अ.ह.र( दूध घी के साथ चावल के भात )का सेवन | मकान में निवास करें । इस से मनुष्य प्रसिद्ध २ रोगों को जीतता है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ वज्रकल्प का विशेषगुण. षण्मासानुपयुज्य बज्रमयसद्भेषज्यपाज्यान्वितं । जीर्णेस्मिन्वरभैषजैतपयोमिश्रान्नमप्याहृतम् ।। जीवेद्वर्षसहस्रमंबरचरैः भूत्वातिगर्वः सदा । मोद्यौवनदर्पदर्पितबल: सदनकायो नरः ॥ ३५ ॥ भावार्थ:--उपर्युक्त वजय औषधियों से युक्त बज रसायनको घी मिलाकर छह महीनेपर्यंत बराबर सेवन करे और प्रतिनित्य उसके जीर्ण होनेपर व अन्य उत्तम औषधियों १ यह क्रिया सातवार करें । २ आग से जलाकर दूध में वुझाव । यह भी सातवार करे । ३ यद्यपि " अभिषेक' का अर्थ धोना या जरु धारा डालना है। इसलिये टीका में भी यही लिखा है । लेकिन यह प्रकरण शुद्धि का होने के कारण धोने की अपेक्षा, गरम कर के बुझाना यह अर्थ करना अच्छा है। उसे क्वाथ में डुबाने से, धोने जैसा हो जाता है। अत: बुलाने का अर्थ भी अस्मिोक शम्दसे निकल सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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