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विषरोगाधिकारः ।
(४९५)
कंदजविषकी विशेषता प्रोक्तलक्षणविषाण्यतितीवाण्युग्रवीर्यसहितान्यहितानि । घ्नति तानि दशभिस्स्वगुणैर्युक्तानि मर्त्यमचिरादधिकानि ॥ ४५ ॥
भावार्थः-उपर्युक्त प्रकार के लक्षणों से वर्णन किये गये तेरह प्रकार के कंदजविष अत्यंत तीन व तीवीर्ययुक्त होते हैं और मनुप्योंका अत्यंत अहित करते हैं । ये कंदजविष तेरह प्रकारके स्वगुणोंसे संयुक्त होते हैं । अतएव ( अन्य विषोंकी अपेक्षा ) मनुष्योंको शीघ्र मार डालते हैं ॥ ४५ ॥
विषके दशगुण. रूक्षमुष्णमतितीक्ष्णमथाशुव्याप्यपाकिलघु चोपविकर्षि । सूक्ष्ममेव विशदं विषमेतन्मारयदशगुणान्वितमाशु ।। ४६ ॥
भावार्थ:--रूक्ष ( रूखा ) उष्ण [गरम ] तीदण (मिर्च आदि के सदृश ) आशु ( शीघ्र फैलाने वाला ) व्यापक (व्यवायि) (पहले सब शरीरमें व्याप्त होकर पश्चात् पकें ) अपाकि [ जठराग्निसे आहार ६. सदृश पकने में अशक्य ] लघु [हलका ] विकर्षि [ विकाशि ] ( संधिबंधनो को ढीला करने के स्वभाव ) सूक्ष्म [ बारीक से बाकि छिद्रोमें प्रवेश करनेवाला गुण ] विशद [ पिच्छिलता से रहित ] ये विषके दशगुण हैं । इन दश ही गुणोंसे संयुक्त जो भी विष मनुष्य को शीघ्र मार डालते हैं।॥४६॥
दशगुणोंके कार्य. रूक्षतोऽनिलमिहोष्णतया तत् कोपयत्यपि च पित्तमथास्रम् । मूक्ष्मतः सरति सर्वशरीरं तीक्ष्णतोऽवयवमर्मविभेदी ॥ ४७ ॥
भावार्थ:--विषके रूक्षगुण से वातोद्रेक होता है उष्ण गुणसे पित्त व रक्तका उद्रेक होता है । सूक्ष्मगुणयुक्त विष सर्वशरीर में सूक्ष्म से सूक्ष्म अवयवो में जल्दी पसरता है। तीक्ष्णगुण से अवयव व मर्मका भेद होता है ॥ ४५ ॥
व्यापकादखिलदेहमिहाप्नोत्याशु कारकतयाशु निहति । तद्विकार्षिगुणतोऽधिकधातून् क्षोभयन्त्यपि विशेद्विशदत्वात् ॥४८॥
भावार्थ:-व्यापक ( ज्यवायि ) गुण से वह सर्वदेह को शीघ्र व्याप्त होता है। आशु गुण से जल्दी मनुष्य का नाश होता है । विकार्षि ( विकाशि) गुण से सर्व धातु क्षुभित होते हैं और विशद से सर्व धातुवो में वह प्रवेश करता है ॥४८॥
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