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( २६२)
कल्याणकारके
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भावार्थ:---- वही शुष्क प.फ तीन वातके आघातसे दो, तीन अथवा अधिक टुकडा हो जाता है । जब वह मूत्र मार्ग में आकर अटक जाता है तब कटी, जांधोंका जोड, बरत व लिंग आदि स्थानमें अयंत वेदना उत्पन्न करता ॥ ४ ॥
शराशूल । सशर्कराशूलमितीह शर्करा । करोति साक्षात्कटिशर्करोषणा ।। पति तास्तीवतरा मुदुम हुः । स्वभेदिसापजसंप्रयोगतः ॥ ५ ॥
भावार्थ:--.---साक्षात् रेती के समान रहने वाला, वह शर्करा, इस (पूर्वोक्त ) प्रकार शर्कराशूल को उत्पन्न करता है । शर्करा को भेदन करने वाली श्रेष्ठ औषधियों के प्रयोग करने से वह तीव्र शर्करा बार २ गिर जाते हैं अर्थात् मूत्र के साथ बाहर जाते हैं ॥ ५॥
अथाश्मर्याधिकारः ।
अश्मरीभेद। कफ:प्रधानाः सकलाश्परागणाः । चतुः प्रकाराः गुणमुख्यभेदतः । कफादिपित्तानिलशुक्रसंभवाः । क्रमेण तासामत उच्यते विधिः ॥ ६ ॥
भावार्थ:----सर्व प्रकार के अश्मरी (पथरी) रोगों में कफ की प्रधानता रहती है । अर्थात् सर्व अश्मरी रोग कफ से उत्पन्न होते हैं। फिर भी गौणमुख्य विवक्षासे कफज, पित्तज, वातज व वीर्यज इस प्रकार चार प्रकारसे होते हैं अर्थात् अश्मरी के भेद चार हैं । अब उनका लक्षण व चिकित्साका वर्णन किया जाता है ॥ ६ ॥
ककार रीलक्षण । अथाश्मरीमात्मसमुद्भवां कफः । करोति गुी महती प्रपाण्डुराम् ॥ तया च मूत्रागममागरोधतो । गुरुर्भवेद्रास्तरिवेह भियंत ॥७॥
१ बस्तिमें, मूत्र के साथ कफ जाकर पूर्वोक्त प्रकार से पत्थर जैसा जम जाता है । अर्थात् धन पिण्ड को उत्पन्न करता है । इसे पथरी वा अश्मरी कहते हैं। यही पथरी वायु के द्वारा टुकडा हो जाता है तब उसे शर्करा कहते हैं।
२ जब कफ अधिक पित्तयुक्त होता है इस से उत्पन्न पथरी में पैत्तिकलिंग प्रकट होते हैं इसलिये पित्ताश्मरी कहलाता है । इस पित्ताश्मरी में भी मूल कारण कफ ही है । क्यों कि कफ को छोड कर पत्थर जैसा घन पिण्ड अन्य दोषों से हो नहीं सकता । फिर भी यहां अधिक पित्तसे युक्त हो । से पिन की मुख्य विवशा है कफ की गौग । इसी प्रकार जब भी जाना चाहिये ।
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