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(७८)
कल्याणकारके
अति वृष्य है कफकारक है । पित्तविकारको दूर करनेवाला है । क्षय, उरःक्षत रोग से जो क्षीण होगया हो, अति कृश होगया हो उसे एवं बालक व वृद्धोंके लिये हितकर है ॥ ३१ ॥
घृतगुण ।
वीर्याधिकं शीतगुणं विपाक । स्वादुत्रिदोषघ्नरसायनं च । तेजो बलायुश्च करोति मेध्यं ॥ चक्षुष्यमेतद्धृतमाहुरार्याः ॥ ३२ ॥
भावार्थ:- घी शक्तिवर्द्धक है, शीत गुणवाला है, पचन कारक है । स्वादिष्ट होता है । वात पित्तकफको दूरकरनेवाला है, रसायन है, शरीर में तेज बल आयु की वृद्धि करनेवाला है । मदको बढानेवाला है एवं आंख के लिये हितकर है ऐसा पूज्य पुरुष कहते हैं ॥ ३२ ॥
तैलगुण |
पित्तं कषायं मधुरातिवृष्यं । सुतीक्ष्णमग्निप्रभवैकहेतुम् ॥ केश्यं शरीरोज्वलवर्णकारी ।
तैलं क्रिमिश्लेष्ममरुत्प्रणाशी ॥ ३३ ॥
भावार्थ:- तेल पित्त करनेवाला है । इस रस मधुर और कषाय है । वृष्य है, अग्निको तीक्ष्ण करनेवाला है । केशों को हित करनेवाला है । शरीरका तेज बढानेवाला है एवं क्रिमको नाश करनेवाला है । कफ और वायुको दूर करनेवाला है ॥ ३३ ॥
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कांजिके गुण ॥
सौरमम्लं बहिरेव शीतमंतर्विदाह्यग्निक्रुदश्मरेकम् । गुल्मादिसं भद्यनिलापहारि ॥ हृद्यं गुरु प्राणबलप्रदं च ॥ ३४ ॥
भावार्थ: खड्डी कांजी बाहरसे ही शीत प्रतिभास होती है । परंतु अंदर जाकर जलन पैदा करनेवाली है । गुल्म आदिको भेदन करती है । मूत्रके पत्थरको रेचन करनेवाली, वात विकारको दूर करनेवाली है । हृद्य एवं पचनेमें भारी है | शरीरको शक्ति देनेवाली है ॥ ३४॥
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