________________
अन्नपानविधिः।
(७९)
अथ मूत्रवर्गः। अष्ट मूत्रगुण गोऽजामहिष्याश्वखरोष्ट्रहास्त- । शस्ताविसंभूतमिहाष्टभेदम् ॥ मत्रं क्रिमिघ्नं कटुतिक्तमुष्णम् । रुक्षं लघुश्लेष्ममरुविनाशि ॥ ३५ ॥
क्षार गुण क्षारस्सदा मूत्रगुणानुकारी । कुष्ठार्बुदग्रंथिकिलासकृच्छ्रान् । अशीसि दुष्टवणसर्वजंतू-।
नाग्नेयशक्त्या दहाह देहम् ॥ ३६॥ भावार्थ:--गाय, बकरी, भैंस, घोडा गधा, ऊंठ, हाथी, मेंढा, इन आठ प्राणि योंसे उत्पन्न मूत्र आठ प्रकारका है। यह क्रिमियोंको नाश करनेवाले हैं। कटु ( चिरपरा ) तिक्त व उष्ण हैं । रुक्ष हैं लघु है एवं कफ और वातको दूर करनेवाले हैं । क्षार में उपरोक्त मूत्र के गुण हैं। कुष्ठ, अर्बुद, ग्रंथि, किलासकुष्ठ, मूत्रकृच्छ, बवासीर, दूषितव्रण, और सम्पूर्ण क्रिमिरोग को जीतता है। अपनी आग्नेय शक्ति के द्वारा देह को जलाता है ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
... द्रवद्रव्यों के उपसंहार एवं द्रवद्रव्यगुणाः प्रतीताः। पानानि मान्यानि मनोहराणि ॥ युक्त्यानया सर्वहितानि तानि ।
ब्रूयाद्भिषम् भक्षणभोजनानि ॥ ३७॥ भावार्थ:-इस प्रकार द्रव द्रव्यों के गुणका विचार किया गया है । इसी प्रकार प्राणियोंके लिये हितकर मान्य, व मनोहर भक्ष्य पेय ऐसे अन्य जो पदार्थ हैं, उनके गुणोंको वैद्य बतलावें ॥३७॥
अनुपानाधिकारः
अनुपानविचार । इत्थं द्रवद्रव्यविधि विधाय । संक्षेपतः सर्वमिहानुपानम् ॥ वक्षाम्यहं सर्वरसानुपानं । मान्यं मनोहारि मतानुसारि ॥ ३८ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org