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( ४ )
कल्याणकारके
आयुर्वेदशास्त्रका परम्परागमनक्रम दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजग समस्तम् पश्चात् गणाधिपनिरूपितवाक्प्रपंच
मष्टार्धनिर्मलधियां मुनयोऽधिजग्मुः॥९॥ भावार्थ:- इस प्रकार भगवान्की दिव्यध्वनि द्वारा प्रकटित ( आयुर्वेदसम्बधी) समस्त तत्वोंको ( चार प्रकारके) साक्षात् गणधर परमेष्ठीने जान लिया । तदनंतर गणवरोंकेद्वारा निरूपित वस्तुस्वरूप को निर्मल मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ज्ञानको धारण करनेवाले योगियोनें जान लिया ॥ ९ ॥
एवं जिनांतरनिबंधनसिद्धमार्गादायातमायतमनाकुलमथगाढम् । स्वायंभुवं सकलमेव सनातनं तत्
साक्षाच्छूतं श्रुतदले श्रुतकेवलिभ्यः ॥ १० ॥ भावार्थ:----- इस प्रकार यह सम्पूर्ण आयुर्वेदशास्त्र ऋषभनाथ तीर्थंकर के बाद, अजित, आदि महावीर तीर्थकरपथत चला आया है, ( अर्थात् चब्बीसो तीर्थकरोंने इसका प्रतिपादन किया है ) अत्यंत विस्तृत है, दोषरहित है , एवं गम्भीर वस्तुविवेचनसे युक्त है। तीर्थंकरोंके मुखकमल से अपने आप उत्पन्न होने से स्वयम्भू है । बीजांकुर न्यायसे ( पूर्वोक्तकमसे ) अनादिकाल से चले आनेसे सनातन है. और गोवर्धन, भदबाहु आदि श्रुतकेवलियोंके मुखसे, अल्पांगज्ञानी या अंगांगज्ञानी मुनियों द्वारा साक्षात् सुना हुआ है । तात्पर्य श्रुतकेवलियोंने, अन्य मुनियोंको इस शास्त्र का उपदेश दिया है। ॥ १० ॥
ग्रंथकारकी प्रतिक्षा । । प्रांद्यज्जिनप्रवचनामृतसागरान्त:प्रोद्यत्तरंगनिसृताल्पसुशीकरं वा वक्ष्यामहे सकललोकहितकधाम कल्याणकारकमिति प्रथितार्थयुक्तम् ॥ ११ ॥
१-तात्पर्य यह कि यह आयुर्वेदशास्त्र त्रिलोकहित तीर्थंकरोंके द्वारा प्रतिपादित है ( इसलिये यह जिनागम है ) उनसे, गणधर, प्रतिगणधरोंने, इनसे श्रुत केवली, इनसे भी, बादमें होनेवाले अन्य मुनियोंने यथाक्रमसे इसको जानलिया है । इसप्रकार परम्परागतशास्त्रोंके आधार मे, अथवा उनका सारस्वरुप, इस कल्याणकारक नामक ग्रंथको उग्रादित्याचार्य प्रतिपादन करेंगे ।
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