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क्षुद्ररोगाधिकारः
(३२५) चैदर्भ, खल वर्धन [ खल्ली वर्धन ] लक्षण. विघृष्यमाणेऽखिलदंतवेष्टके । महातिसंरंभकरोऽभिघातजः ॥ भवेत्स वैदर्भगदोधिदंतको । मरुत्कृतः स्यात्खलेवर्द्धनोऽतिरुक् ।। ७३ ।।
भावार्थ:-सभी मसूडोंको रगडनेसे, उन में गहान् सूजन होती है [दांत भी हिलने लगते हैं ] इसे वैदर्भ रोग कहते हैं। यह अभिघात [चोट लगने से उत्पन्न होता है। वायु के कोप से, दांत के ऊपर दूसरा दांत ऊगता है और उस समय अत्यंत वेदना होती है। ( जब दांत ऊग आये तब पीडा अपने आप ही होती है ) इसे खलवर्धन [ खल्लीवर्धन ] रोग कहते हैं ॥ ७३ ॥
__अधिमांस लक्षण व चिकित्सा. .. हनौ भवत्पश्चिमदंतमूलज- । स्सदैव लालाजननोऽतिवेदनः ॥ .... महाधिमांसवयथुः कफोल्बण- स्तमाशु मांसक्षरणैः क्षयं नयेत् ॥७॥
भावार्थ:-हनु अस्थिके अंदर के बाजूमेंसे पीछे (अंतिम)के दांतके व मूल (मुसूडे) में कफके प्रकोपसे, लारका स्राव, अत्यंत वेदनायुक्त जो महान् शोथ उत्पन्न होता है उसे अधिमांस कहते हैं । इसको शीघ्रही मांसक्षरणके द्वारा नाश करना चाहिये ॥ ७४ ॥
दंतनाडी लक्षण व चिकित्सा. तथैव नाड्योऽपि च दंतम्रलजाः। प्रकीर्तिताः पंचविकल्पसंख्यया ॥ यथाक्रमादोषविशेषतो भिषक् । विदार्य संशोधनरोपणैर्जयेत् ॥ ७५ ॥
भावार्थ:--पाहेले नाडीव्रणके प्रकरणमें धात, पित्त, कफ, सन्निपात और आगंतुक ऐसे पांच प्रकारके नाडीवण बतलाये हैं । वे पांचों ही दंतमूर में होते हैं। इसे दंत नाडी कहते हैं । इनको दोषभेद के 3 नुसार विदारण, शोधन, रोपण आदि विधियों द्वारा चिकित्सा करके जीतना चाहिये ॥ ७५ ॥
दंतमूलगत रोग चिकित्सा. दृढातिशोफान्वितमूलमुष्मणा । प्रतशमाश्वस्रविमोक्षणैः सदा ॥ .. कषायतलाज्यकृतैः सुभेषजैः । स्मुखोष्णगण्डूषविशेषणैर्जयेत् ॥ ७६ ॥
भावार्थ:-कठिन सूजनसे युक्त उष्णसे प्रतप्त ( तपा हुया) दंतमलको, शीघ्र ही रक्तमोक्षण द्वारा उपचार करें । एवं कषाय, तैल, घृत इनसे सिद्ध श्रेष्ठ औषधियोंके गण्डूष धारण आदि विशेष क्रियाओंसे जीतना चाहिये ॥ ७६ ॥ .
१ पलवर्द्धन इति पाठांतरं ।
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