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________________ ( ३३६ ) कल्याणकारके उपकुश में गण्डूष व नस्य. सपिप्पलीसैंधव नागरान्वितैः । ससर्षपैस्सोष्णजलप्रमेलितैः ॥ सदैव गण्डूषविधिर्विधीयतां । धृतं स नस्येन फलेन (१) पूजितम् ॥७७॥ भावार्थ:- पीपल, सेंवालोण, सोंठ, सरसों इन को गरम जल में मिलाकर सदा गण्डूप धारण करना चाहिये एवं नव व काल धारण में [ मधुरोपत्र काकोल्यांदि गणसिद्ध] धृत का उपयोग करना चाहिये ॥ ७७ ॥ वैदर्भचिकित्सा. निशातशस्त्रेण विदर्भसज्ञितं । विशोधयेत्तदशन रुष्टकम् ॥ निपातयेत्सारमनंतरं ततः । क्रियास्शीताः सकलाः प्रयोजयेत् ॥७८॥ भावार्थ:-वैदर्भनामक रोग में दंतवेष्टगत शोध को, तीक्ष्ण शस्त्र से [ विदारण करके ] शुद्धि कर, क्षारपातन [ क्षार डालना ] करें । पश्चात् संपूर्ण शांतचिकित्सा . का उपयोग करना चाहिये ॥ ७८ ॥ aaर्धन चिकित्सा. अधाधिक दंतमिहोद्धरेत्तता । दहेच्च मूलं क्रिमिदंतवत्क्रियाम् ॥ विधाय सम्यग्विदधीत भेषजं । गलामयानां दश सप्तसंख्यया ॥ ७९ ॥ भावार्थ:- खलवर्धन में जो अधिक दांत आता है उसको निकाल डालना चाहिए दंतमूलको जलाना चाहिए । इस में किमिदंतक रोगके लिए जो क्रिया बताई गई है उन सत्रको करके योग्य औषधिद्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । अब सत्रह प्रकार से गलरोगों का निरूपण करेंगे ॥ ७९ ॥ रोहिणी लक्षण. गलातिसंशोधनतत्परांकुरे । स्सदोपलिगैरुपलक्षिताः पृथक् ॥ पृथक्समस्तैरनिलादिभिस्तत- । स्तथासृजः स्यादिह रोहिणी नृणाम् ८० भावार्थ: वात, पित्त, कफ, रक्त के प्रकोप, एवं सन्निपात से, गलेको एकदम रोकनेवाले ( कांटे जैसे ) अंकुर ( गलेमें ) उत्पन्ने होते हैं, जो कि तत्तदोषोंके लक्षणोंसे संयुक्त हैं इसे रोहिणी रोग कहते हैं ॥ ८० ॥ १ उपरोक्त प्रकार पांच प्रकारले रोहिणी रोग होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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