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क्षुदरोगाधिकारः।
( ३२५)
रोहिणीके साध्यासाध्य विचार. स्वभावतः कृच्छ्रतरातिरोहिणी । स्वसन्निपातप्रभवा कफात्मिका ।। विवर्जयेद्या भिषजासृगुत्थिता । सुखेन साध्यात्र विधिविधीयते ॥८१॥
भावार्थ:--सर्व प्रकार के रोहिणी रोग स्वभावसे ही अत्यंत कष्टसाध्य होते हैं । उस में भी सन्निपातज, कफ व रक्तविकारसे उत्पन्न रोहिणीको वैद्य असाध्य समझकर कोडें । सुखसाध्य रोहिणी का चिकित्साक्रम आगे कहा जाता है ॥ ८१ ॥ .
साध्यरोहिणीको चिकित्सा. सरक्तमोक्षः कवलग्रहः शुभैः । सधूमपानवमनाविलेहन : ॥ . शिरोविरेकैः प्रतिसारणादिभि । जयेत्स्वदोपक्रमतो हि रोहिणीम् ॥८२॥
भावार्थ:--दोषोंके बलाबलको विचार कर उनके अनुसार [ जहां जिसकी जरूरत हो ] रक्त मोक्षण, कबलग्रहण, धूमपान, वमन, लेहन, शिरोविरेचन, प्रति सारण [ बुरखना ] विधियोंसे रोहिणीकी चिकित्सा करें। ८२ ॥
कण्ठशालूक लक्षण व चिकित्सा. खरः स्थिरः कंटकसंचितः कफात् । गले भवः कोलफलास्थिसनिमः॥ सकंठशालंक इति प्रकीर्तितः । तमाशु शस्त्रेण विदार्य शोधयेत् ॥ ८३ ॥
भावार्थ:-कफके विकारसे कठोर, स्थिर, ब कंटकसे युक्त बेरके बीजके समान कंठमें एक ग्रंथि ( गांठ ) होती है उसे कंठशालूक रोग कहते हैं । उसे शीघ्र शस्त्रसे विदारण कर शोधन करना चाहिये ।। ८३ ॥
विजिव्हिका [ अधिजिव्हिका ] लक्षण. रसंद्रियस्योपरि मलसंभवां। गले मबद्ध रसनोपमांकरी॥ बलासरक्तमभवां विजिदिकां । विवर्जयेत्तां परिपाकमागतां ।। ८४ ॥
भावार्थ:--- कफ व रक्तके प्रकोपसे, जिव्हा ( जीभके ) के ऊपर व उसीके मूलमें गलेसे बंधा हुआ, और जीभके समान, जो ग्रंथि उत्पन्न होती है, इसे. विजिव्हिका (अधिजिव्हिका ) रोग कहते हैं । यदि यह ( विजिव्हिका ) पकजाय तो असाध्य होती है उसको छोडना चाहिये ।। ८४ ॥
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१ तालूक इति पाठांतर
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