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( १० )
कल्याणकारके
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संज्ञी श्रेष्ठ है । पंचेंद्रिय संज्ञियो में भी जिन्होंने सर्व तरहसे धर्माचरण के अनुकूल धर्ममय क्षेत्रमें जन्म लिया है ऐसे धार्मिक मनुष्य सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ २६ ॥
तेषां क्रिया प्रतिदिनं क्रियते भिषग्भिरायुर्वयोविलसत्वसुदेशसात्म्यम्
विख्यातसत्प्रकृतिभेषजदेहरोगान्
कालक्रमानपि यथक्रमतो विदित्वा ॥ २७ ॥
भावार्थ::- उन धर्मात्मा रोगियोंकी आयु, वय, अग्निबल, शक्ति, देश, अनुकूलता, वातादिक प्रकृति इसके अनुकूल औषधि, शरीर, रोग व शीतादिक काल, इन सब बातोंको क्रम प्रकार जानकर चिकित्सा करें ॥ २६ ॥
चिकित्सा के चार पाद
तत्र क्रियेति कथिता सुनिभिश्चिकित्सा सेयं चतुर्विधपदार्थगुणप्रधाना वैद्याgरौषधमुभृत्यगणाः पदार्थास्तेष्वप्यशेषधिषणो भिषगेव मुख्यः ॥ २८ ॥
भावार्थ:— पूर्वोक्त क्रिया शब्दका अर्थ आचार्यगण चिकित्सा कहते हैं । उस चिकित्सा के लिये अपने गुणों से युक्त चार प्रकार के पदार्थों ( अंगो ) की आवश्यकता होती है । वैद्य, रोगी, औषध व रोगीकी सेवा करनेवाले सेवक, इस प्रकार चिकित्साके चार पदार्थ हैं अर्थात् अंग या पाद हैं उनमें बुद्धिमान् वैद्य ही मुख्य है, क्यों कि उसके विना बाकी सब पदार्थ व्यर्थ पडजाते हैं ॥ २८ ॥
वैद्यलक्षण
ग्रंथार्थविन्मतियुतोऽन्यमतप्रवीणः सम्यक्मयोगनिपुणः कुशलोऽतिधीरः धर्माधिकः सुचरितो बहुतीर्थशुद्धो
वैद्यो भवेन्मतिमतां महतां च योग्यः ॥ २९ ॥
भावार्थ:- जो वैद्यक ग्रंथके अर्थको अच्छीतरह जानता हो, बुद्धिमान् हो, अन्यान्य आचार्यों के मतों को जानने में प्रवीण हो, रोगके अनुसार योग्यचिकित्सा करने में निपुण हो, औषधियोजना में चतुर हो धीर हो, धार्मिक हो, सदाचारी हो, बहुतसे गुरुजनोंसे जो अध्ययन कर चुका हो वह वैय विद्वान् महापुरुषों को भी मान्य होता है ।। २९ ।।
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