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________________ सूत्रव्यावर्णनम् (३३) भावार्थ:---इस प्रकार यह शरीर फूटे घडेके समान है जिसमे सदा रात्रिंदिन नव द्वारसे मल गलता रहता है । एवं रोमकूपोंसे पसीना बहता रहता है जिसमें अनेक j, आदि छोटे २ जीव पैदा होते हैं ॥ १२ ॥ धर्मप्रेम की प्रेरणा इत्यं परीरं निजरूपकष्टं कष्टं जरात्वं मरणं वियोगः । जम्मातिकष्टं मनुजस्य नित्यं तस्माच धर्मे मतिमत्र कुर्यात् ॥१३॥ भावार्थ:--इस प्रकार यह शरीर स्वभावसे ही कष्ट (अशुचि) स्वरूप है। उसमें बुढापा, मरण व इष्ट वस्तुवोंका वियोग आदि और भी कष्ट हैं; जन्म लेना महाकष्ट है। इस प्रकार मनुष्यको चारों तरफ से कष्ट ही कष्ट है । इसलिये मनुष्यको उचित है कि बह सदा धर्मकार्यमें प्रवृत्ति करें ॥ १३ ॥ आतिस्मरण विचार। एवं हि जातस्य नरस्य कस्यचित् । जातिस्मरत्वं भवतीह किंचित् । तस्माच्च तल्लक्षणमत्र मूच्यते । जन्मांतरास्तित्वनिरूपणाय तत् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-इसप्रकार (पूर्वोक्त क्रमसे) उत्पन्न मनुष्योंमें किसी २ को कभी २ जातिस्मरण होता है । इसलिये उसका लक्षण यहां कहा जाता है जिससे पूर्वजन्म व परजन्मका अस्तित्व सिद्ध हो जायगा ॥ १४ ॥ जातिस्मरणके कारण । माणांतिके निर्मलबुदिसत्वता । शाखबताधर्मविचारगौरवम् । बकेतरमाप्तिविशेषणोद्भवो । जातिस्मरत्वे स्युरनेकहेतवः ॥ १५ ॥ भावार्थ:-प्राण जाते समय ( मरण समय ) बुद्धि और मन में नैर्मल्य रहना, शाचज्ञानका रहना, धार्मिक विचार की प्रबलता का रहना, ऋजु गतिसे जन्मस्थानमें उत्पन्न होना, सरल परिणामकी प्राप्ति आदि जातिस्मरण के लिये अनेक कारण होते हैं ॥१५॥ जातिस्मरणलक्षण। श्रुत्वा च दृष्ट्वा च पुरा निषेवितान् । स्वप्नाद्भयात्तत्सदृशानुमानतः । साक्षात्स्वजातिं परमां स्मरति तां । कर्मक्षयादोपशमाच्च देहिनः ॥१६॥ भावार्थ:-पहिलेके जन्ममें अनुभव किये हुए विषयोंको सुनकर या देखकर, एवं स्वप्न व भय अवस्थामें तत्सदृश पदार्थोको देखकर उत्पन्न, तत्सदृश अनुमानसे तथा मति ज्ञानावरणीय कर्मके क्षय, उपशम व क्षयोपशमसे मनुष्य अपने पूर्वभव संबंधी विषयोंको साक्षात् स्मरण करता है उसे जातिस्मरण कहते हैं ॥ १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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