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________________ कल्याणकारके प्रकृतिकी उत्पत्ति निर्दिश्य जातिस्मरलक्षणत्वं वक्ष्यामहे सत्प्रकृति यथाक्रमात् । रक्तान्विते रेतसि जीवसंचरे दोपोत्कटांत्था प्रकृतिर्नृणां भवेत् ॥ १७ ॥ भावार्थ:--इस प्रकार जातिस्मरणके लक्षणको निरूपण कर. अब मनुष्यके शरीरकी बातपित्तादि प्रकृति के विषय में.. वर्णन करेंगे । यथाक्रम गर्भाशयस्थ, रज और चार्यमिश्रित पिण्डमें जिस समय जीवका संचार ( जीवोत्पत्ति ) होता है, उसी समय, अस जीवसंयुक्त पिण्ड में जिस दोप की अधिकता हो, उसी, दोष की प्रकृति बनती है। यदि. उस पिण्ड में पित्तका आधिक्य हो तो, उस से उत्पन्न संतान की पित्तं प्रकृति होती है । इसी तरह अन्य प्रकृतियों को जानना । यदि तीनों दोष समान हों तो समप्रकृति बनती है ॥ १७ ॥ वात प्रकृतिक मनुष्यका लक्षण । वातोद्भवा या प्रकृतिस्तया नरः शीतातिविद्विट् परुषः सिरान्वितः। जागर्ति रात्री सततं प्रलापवान दौर्भाग्यवान् तस्करवृत्तिरपियः ।।१।। मात्सर्यवानार्यविवर्जितो गुणे । रूक्षाल्पकेशी नखदंतभक्षकः । रोगाधिकस्तूर्णगतिः खलोऽस्थिरों निस्सौहदो धावति गायकस्सदा ॥१९॥ साक्षात्कृतघ्नः कृशनिष्ठुरांगः संभिन्नपादो धमनीसनार्थः । धैर्येण हीनोऽस्थिरबुद्धिरल्पः स्वप्ने च शैलाग्रनभोविहारी ॥ २०॥ भावार्थ:----वात प्रकृति का मनुष्य शतिद्वेषी, अधिक व कटिन सिरावोंसे युक्त होता है, रात्रिमें ( विशेष) जागता है व सदा बडबड करता रहता है एवं वह भौग्यहीन, चोर व दुनियाको अप्रिय, मत्सरी सज्जनों के गुणों से रहित, रूक्ष वं अल्पकेश सहित, नख व दंत को भक्षण कारनेवाला, अधिक रोगसे पीडित, फुर्तीसे चलनेवाला, दुर्जन, अस्थिर व जिसका कोई भित्र नहीं होते, विशेष दौडने वाला एवं हमेशा मानेवाला होता है । ए साक्षात् तन्न, कृश व निष्ठुर ( खरदरापन आदि-लिये हुए) शरीरवाला होता है और जिसके दोनों पाद फटे रहते हैं । अधिकथमनिसे व्याप्त रहता है । धैर्य रहिल अस्थिर, व अप बुद्धिवाला होता है । तथा स्वप्न में. पर्वतः के अग्रभाग व आकाश में विहार करता है अर्थात् पर्वताग्रभाग व आकाश में गमन करने या विप्न देखता है ॥ १८ ॥ १९॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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