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(५८८)
- कल्याणकारके
सघस्नेहनप्रयोग. सपिप्पलीसैंधवमस्तुकान्वितं घृतं पिबेद्रौक्ष्यनिवारणं परम् ॥ सशर्कराज्यं पयसैव वा सुखम् पयो यवागूमथवाल्पतण्डुलाम् ॥ १२ ॥ सितासिताज्यैः परिदुह्य दोहनं प्रपाय रोक्ष्यात्परिमुच्यते नरः ॥ कुलत्यकोलाम्लपयोदधिद्रवैः विपक्वमप्याशु घृतं घृतोत्तमम् ॥ १३ ॥
भावार्थः- पीपल, सेंधानमक, दही का तोड, इन को एक साथ धृत में मिलाकर पीने से शीघ्र ही रुक्ष का नाश होता है। अर्थात् सद्य ही स्नेहन होता है । शकर मिले हुए घी को दूध के साथ पीने से एवं दूध से साधित यवागू जिस में थोडा चावल पडा है, उस धूत में मिलाकर पान करने पर सघ ही स्नेहन होता है । शक्कर मिले हुए घृत को एक दोहनी में डाल कर, उस में उस समय दुहे ( निकाला ) हुए गाय के दूध [धारोष्ण गोदुग्ध ] को मिलाकर रूक्ष मनुष्य पावें तो तत्काल ही उस का रूक्षत्व नष्ट हो कर स्नेहन हो जाता है । इसी प्रकार कुलथी वेर इन के काथ व दूध दही, इन से साधित उत्तमघृत को पीने से भी शीघ्र स्नेहन होता है ॥१२॥१३॥
स्नेहनयोग्यरोगी. नृपेषु वृद्धेष्वबलावलेषु च प्रभूततापाग्निषु चाल्पदोषिषु ॥ भिषग्विदध्यादिह संप्रकीर्तितान् क्षणादपि स्नेहनयोगसत्तमान् ॥१४॥
भावार्थ:-जो राजा हैं, वृद्ध हैं, स्री है, दुर्बल हैं, आधिकसंताप, मृदु अग्नि व अल्पदोषों से संयुक्त हैं, उन के प्रति, पूर्वोक्त स्नेहन करनेवाले उत्तमयोगों को वैध ( स्नेहन करने के लिये ) उपयोग में लावें ॥ १४ ॥
रूक्षमनुष्यका लक्षण. पुरीषमत्यंतनिरूक्षितं घनं निरति कृच्छ्रान्न च भुक्तमप्यलम् ॥ विपाकमायाति विदधते ह्युरा विवर्णमात्रेऽनिलपूरितोदरः ॥ १५ ॥ सुदुर्बलस्स्यादतिदुर्बलाग्निमान्विरूक्षितांगो भवतीह मानवः ॥ . ततः परं स्निग्धतनोस्सुलक्षणम् ब्रवीमि संक्षेपत एव तण्णु ॥ १६ ॥
भावार्थ:-रूक्ष मनुष्य का मल अत्यंत रूक्षित व घन (घट्ट, हो कर बहुत मुष्किल से बाहर आता है । खाये हुए आहार अच्छी तरह नहीं पचता है । छाती
१ वृषेषु इति पाठांतरम् । इसका अर्थ जो धर्मात्मा है अर्थात् शांतस्वभाववाले हैं ऐसा होगा परंतु प्रकरणमें नृपेषु यह पाठ संगत मालुम होता है । सं.
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