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भेषजकर्मोपद्वचिकित्साधिकारः । (५८७)
वातादिदोषों में घृत पानविधि. पिवेघृतं शर्करया च पैत्तिके ससैंधवं सोष्णजलं च वातिके ॥ कटुत्रिकक्षारयुत कफात्मिक क्रमेण रोगे प्रभवंति तद्विदः ॥८॥
भावार्थ:---पित्त दोषोत्पन्न रोगों में घृत को शक्कर के साथ मिला कर पीना चाहिए । वातज रोगों में सैंधालोण व गरम पानी के साथ पीना चाहिए । कफज रोगों में त्रिकटु व क्षार मिला कर पीना चाहिए ऐसा तज्ज्ञ लोगों का मत है ॥ ८ ॥
अच्छपान के योग्य रोगी व गुण. नरो यदि क्लेशपरी बलाधिकः स्थिरस्स्वयं स्नेहपरोऽतिशीतले ॥ पिबेतौ केवलमेव तद्घृतं सदाच्छपानं हि हितं हितैषिणाम् ॥ ९ ॥
भावार्थ:----जो मनुष्य बलवान् है, स्थिर है, परंतु दुःख से युक्त है, यदि वह स्नेहनक्रिया करना चाहता है तो शीत ऋतु ( हिमवंत शिशिर ) में वह केवल [ अकेला ] घृत को ही पीवें । यह बात ध्यान में रहे कि अच्छ [ अकेला ही शक्कर आदि न मिला कर ] घृत के पीने में ही उस को हित है अर्थात् वह विशेष गुणदायक होता है ॥९॥
घृतपान की मात्रा. कियत्प्रमाणं परिमाणमेति त त तु पीतं दिवसस्य मध्यतः ।। मदक्कमग्लानिविदाहमूर्च्छनात्यरोचकाभावत एव शोभनम् ॥ १०॥
भावार्थ:-पीये हुए घृत की जितनी मात्रा ( प्रमाण ) मध्यान्हकाल (दोपहर) तक मद, क्लम, ग्लानि, दाह मूर्छा व अरुचि को उत्पन्न न करते हुए अच्छी तरह पच जावे, उतना ही घृत पीने का प्रशस्तप्रमाण समझना चाहिये । ( यह प्रमाण मध्यम दोषवाओं को श्रेष्ठ माना है ) ॥ १० ॥
सभक्तघृतपान. मृदुं शिशुं स्थूलमतीवदुर्बलं पिपासुमाज्यद्विपमत्यरोचकम् ॥ मुदाहदेहं सुविधानतादृशं सभक्तमेवात्र घृतं प्रपाययेत् ॥ ११ ॥
भावार्थ:- बालक, मृदु प्रकृतिवाले, स्थूल, अत्यंत दुर्बल, प्यासे घी पीने में नफरत करनेवाले, अरोचकता से युक्त, दाहसहित देहवाले एवं इन सदृश रोगियों को भोजन के साथ ही घत पिलाना चाहिये अर्थात् अकेला छ न पिलाकर, भोजन ( भात रोटी आदि ) में मिलाकर देना चाहिये ॥ ११ ॥
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