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________________ (५८६) . कल्याणकारके घृतके अजीर्णजन्यरोग व उसकी चिकित्सा. घुतेप्यर्णेि प्रभवंत्यरोचकज्वरप्रमेहोन्मदकुष्ठमूर्च्छनाः। अतः पिबेदुष्णजलं ससैंधवं सुखांभसा वाप्यथ वामयद्भिषक् ॥ ४ ॥ भावार्थ:-पिया हुआ घृत यदि जीर्ण न हुआ तो वह अरोचक, ज्वर, प्रमेह, उन्माद, कुष्ठ और मूर्छा को उत्पन्न करता है। उस अवस्थामें उष्णजल में सेंधालोण मिलाकर उसे पिलाना चाहिये या सुखोष्णजल से उस रोगीको वमन कराना चाहिये ।। ४ ॥ जीर्णघृतका लक्षण. यदा शरीरं लघुचान्नकांक्षिणं मनोवची मूत्रपुरीषमारुतः । प्रवृत्तिरुद्गारविशुद्धिरिंद्रियप्रसन्नता [ज्वलजीर्णलक्षणम् ॥ १॥ भावार्थ:--धृत पान करनेपर जब शरीर हलका हो, अन्न की इछा उत्पन्न हो, मन प्रसन्न हो, वचन, मूत्र, मल, वायु की प्रवृत्ति ठीक तरह से हो, डकार में अर्णािंश व्यक्त न हो [ साफ डकार आती हो ] इंद्रियो में प्रसन्नता व्यक्त हो, तब वह घत जर्णि हुआ ऐसा समझना चाहिये ॥ ५ ॥ घृत जीर्ण होने पर आहार. ततश्च कुस्तुंबुरुनित्रसाधितं पिबंद्यवागूमथवानुदोषतः । कुलत्थमुद्ाढकयूषसत्खलैर्लघूष्णमन्नं वितरेद्यथोचितम् ॥ ६ ॥ भावार्थ--पिया हुआ घृत पच ज ने पर धनिया व निब से सिद्ध यवागू पिलाना चाहिए । अथवा दोष के अनुसार औषधसाधित यवागू अथवा कुलथी, मूंग, अरहर का यूष व योग्य खल के साथ लधु व उष्ण अन्न को यथा योग्य खिलाना चाहिए ॥६॥ स्नेहपान विधि व मर्यादा. स्वयं नरस्नेहनतत्परो घृतं तिलोद्भवं वा क्रमवद्धितं पिबेत् ॥ . त्रिपंचसप्ताहमिह प्रयत्नतः ततस्तु सात्म्यं प्रभवन्निषेवितम् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-स्नेहन क्रिया में तत्पर मनुष्य अपने शरीर को स्निग्ध [ चिकना] बनाने के लिए घी अथवा तिल के तेल को क्रमशः प्रमाण बढाते हुए, तीन दिन, पांच दिन या सात दिन तक पायें । इस के बाद सेवन करें तो वह सात्म्य [प्रकृति के अनुकूल ] हो जाता है । इसलिए सात दिन के बाद न पावे ॥ ७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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